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विक्रमादित्य की सभा में जिस प्रतिष्ठा के साथ कालिदास आदि वैदिक धर्मावलंबी विद्वान रहते थे उसी प्रतिष्ठा के साथ अमरसिंह आदि बौद्ध धर्मा पलंबो विद्वान भी रहते थे । सिद्धसेन दिवाकर ने भी विक्रमादित्य को प्रतिष्ठित सभा में प्रवेश किया और क्रमश: उनकी नवरत्नो में गिन्ती होगई।
जैन ग्रन्थों के मत से महावीर (जैनों के अन्तिम तीर्थंकर ) की निर्वागप्राप्ति के ४६७ वर्ष बाद क्राईस्ट के ५७ वर्ष पूर्व क्षपणक उज्जयिनी में विद्यमान थे। उनके बनाये जितने ग्रन्थ इस समय मिलते हैं उनमें सम्मतितर्क सूत्र और न्यायावतार प्रधान हैं । ये दोनों ग्रन्थ न्यायशास्त्र के हैं। न्यायवतार को यदि हम विशुद्ध जैन न्याय का प्रथम ग्रन्थ कहें तो भी अत्युक्ति न होगी। इसमें केवल ३२ ही श्लोक हैं किन्तु इतने ही श्लोकों में जैन न्यायशास्त्र का विवरण संक्षेप रूप से भलीभांति हो जाता है । पूर्वोक्त ग्रन्थ में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तथा नय और स्यादवाद का वर्णन है। अनुमान और अनुमान के दोष समूह ऐसी योग्यता से और किसी दार्शनिक ने नहीं लिखे । ग्रन्थ का प्रथम श्लोक यह है
प्रमाणं स्वपरामासि, ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च, द्विधाज्ञेयविनिश्चयात् ॥ जो वाध-रहित ज्ञान अपने और दूसरों को प्रकाशित करे उसीका नाम प्रमाण है । ज्ञेय पदार्थ-समूह दो प्रकार से निश्चित होता है । इसलिए प्रमाण भी दो प्रकार के होते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष । ग्रन्थ का अन्तिम श्लोक यह है :
प्रमाणादिव्यवस्थेय-मनादिनिधनात्मिका ।
सर्वसंव्यवहर्तृणां, प्रसिद्धापि प्रकीर्तिता ।। यह प्रमाणादि व्यवस्था अनादि काल से चली आती है और अनंत काल तक चलती रहेगी । उसका व्यवहार सभी लोग करते आये हैं । यह कोई नई बात नहीं है। विक्रम संवत् ११५९ अर्थात् ११०२ ईस्वी में चन्द्रप्रभमूरि नामक एक जैन दार्शनिक हो गये हैं। उन्होंने न्यायावतार की एक विशद टोका लिखी है जिसका नाम न्यायावतार-विवृत्ति है। उनके बनाये दो ग्रन्थ और भी मिलते हैं जिनके नाम दर्शनशुद्धि और प्रमेयरत्नकोष हैं ।
कुछ दिन हुये श्री सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने जैन मित्रों को सहायता से न्यायावतार की एक अति प्राचीन हस्त लिखित पुस्तक दक्षिण से मंगाई है। उसका अध्ययन अवलोकन करके उसके विषय में बहुत सी बातें लिखी हैं । _ [पीछे देखो]
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