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क्षपणक
लेखक :- श्रीमान् अक्षयवट मिश्र
भारत के प्राचीन सम्राट् महादानी उज्जयिनीपति महाराज विक्रमादित्य का नाम सभी जानते हैं। उन्होंने भारत के अतिरिक्त भारत के समीपवर्ती अन्यान्य देशों पर भी अपने प्रखर प्रताप का प्रभाव डाला था। विक्रमादित्य ने बहुत परिश्रम और धनव्यय से भारत के लुप्त तीर्थों का जीर्णोद्धार तथा पुनरुज्जीवन किया। यदि वे इस काम को न करते तो भारत के कितने तीर्थों का पता भी न लगता। वे बड़े गुणानुरागी थे। उन्होंने अपनी सभा में बड़े बड़े विद्वानों को आश्रय दिया था। वे साधारण विद्वान न थे। उनका नाम समस्त भारतवर्षीय जन जानते हैं। उनकी सभा के विद्वानों में नव विद्वान बडे विलक्षण थे। इसलिये वे 'नवरत्न' कहलाते थे। उनमें कालिदास शिरोमणी थे । अमरकोष के प्रणेता अमर सिंह, पंचसिद्धान्तिकादि ग्रंथों के निर्माता प्रसिद्ध ज्योति । वराहमिहिर, घटकर्पर काव्य के रचयिता घटकर्पर आदि विद्वानों को सभी लोग थोडाबहुत अवश्य जानते हैं। किंतु क्षपगक को बहुत ही कम लोग जातवे होंगे कि वे कौन थे और उन्होंने कौन कौन से कार्य किये। इसलिये उनके विषय में दो बार बातें लिम्बना अवश्य रुचिकर होगा।
क्षपणक जैनमतावलंबी थे। वे श्वेतांबर संप्रदाय के साधु थे। क्षपणक शब्द का अर्थ है संन्यासी। उनका नाम क्षपणक न था यह उनकी उपाधी मात्र थी। उनका नाम था -- सिद्धसेन दिवाकर । उनका जन्म गुजरात में हुआ था। विद्या सीखने के लिये वे उज्जयिनी आये। उनके गुरु का नाम था “वृद्धिवादिसूरि"। जिस समय सिद्धसेन दिवाकर ने जैन संप्रदाय में प्रवेश किया उसके पहिले उनका नाम कुमुदचंद्र था, उन्होंने अनेक स्तोत्रों की रचना की। उन स्तोत्र--समूहों का नाम उन्होंने “ कल्याणमन्दिरस्तव" रक्खा' । सुनने में आता है कि एक दिन उज्जयिनी में महाकाल के सामने वे 'कल्या मन्दिरस्तव' का पाठ करने लगे। उस स्तोत्र के प्रभाव से महाकाल के मन्दिर में जैन तीर्थंकर पार्वनाथ की मूर्ति अचानक ही प्रकट हो गई और शिवमूर्ति खंड-खंड हो गई। इस घटना का समाचार सुनकर महाराज विक्रमादित्य आश्चर्य में डूब गये । उन्होंने सिद्धसेन दिवाकर से जैनधर्म का महात्म्य सुना और उन्हींसे जैनधर्म की दीक्षा भी ली। जैसे अशोक जैनधर्म के पृष्ठपोषक थे वैसे ही विक्रमादित्य भी जैनधर्म के पृष्टपोषक हुये। इसी कारण
१. “ कल्याणमंदिरस्तव” स्तोत्रसमूहों का नाम नहीं है किन्तु एक स्तोत्र-विशेष का
--संपादक
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