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૧૯૯૨ દિગંબર શાસ્ત્ર કેસે બને?
૨૫ जैसाको उपर लिखे १।१।३ वे श्लोकमें लिखे ३।१०।१५-१६ में परिभाषासमुद्देश गये गोतमसंहिताके नामसे स्पष्ट प्रतीत होता है। की शहादत है।
उक्त गौतमसंहिताको कोइ परमात्मा ३।६।३६ में यंत्रराजका निर्देश है। महावीर देवके प्रथम गणधर श्री गौतम- ३।१०।१७३-१७४ में जटिलकेशस्वामीकी कृति न मान ले। क्योंकि श्री कथित उद्धरण है। गौतमस्वामीजीने द्वादशांगी व प्रतिक्रमणको ३।८।१४ में सुबिन्दुकुमारका निर्देश है। छोडकर और किसीकी रचना नहीं की है। २।३४।१२४ व ३।९।१ में यह और दिगम्बर साहित्यमें कहीं भी ऐसा ग्रन्थ मुनिओंके प्रश्नसे नहीं किन्तु किसी उल्लेख नहीं है कि-श्री गौतमस्वामीजीने राजाके प्रश्नसे बनानेका निर्देश है और अपने नामसे कोइ ग्रन्थ बनाया या गौतम- २।२। में यह ग्रन्थ मुनिओं के प्रश्नसे बनानेका संहिता नामक ग्रन्थ बनवाया । न ऐसा उल्लेख है । कैसा विचित्र ! होनेका संभव ही है।
२।३०।१ में दुर्गादि ऐलादिका उक्त भद्रबाहुसंहिताके २।३।६५, उल्लेख है। २१७१६, २०३७३ व २।४१।१८ में २।३०।१८, ४३, ४४, ४९ इत्यादि श्रीभद्रबाहु वामोका उल्लेख है। २।४१॥ श्लोक दुर्गदेवके प्राकृत " रिष्टसमुच्चय " से ६५-६६ में भी उनका नाम है और लिखा अनुवादित हैं। है कि-" महाराजा श्रेणिकके प्रश्नके उत्तरमें खण्ड दूसरेके मुहूर्त व वास्तुके श्रीभद्रबाहुस्वामीने यह कहा था"। अध्यायमें दिगम्बर आचार्य वसुनन्दीकृत इतिहासका कैसा उलटा समन्वय बताया। प्रतिष्ठासारसंग्रहके दूसरे व तीसरे परिच्छेदके कि-श्रीभद्रबाहुस्वामी व श्रेणिक महाराज सम
श्लोकके श्लोक उठा लिये हैं, जैसाकि कालीन हो गये एवं परस्पर मिल भी गये ।
२।७७।११, २०३५/४ इत्यादिसे प्रतीत वास्तवमें बात यह है कि-यह श्लोक,
१।३।३६३ व १।१०।७२ इत्यादि बृहत्पाराशर संहिताके अ० ३१ में से एक
श्लोक पं० आशाधर रचित सागरधर्मामृतसे श्लोकके सिर्फ एक पादमें परिवर्तन करके
। अविकलरूपसे उठा लिये हैं। अविकलरूपसे उठा लिया गया है। विशेष में
३।९।३२ व ४३ में विक्रमसंवत् २॥३७॥१२६ में घोडेके लक्षणमें १५२७ के करिब बने हुए भद्रबाहुचरित्रके नीतिविद् चन्द्रवाहनका निर्देश है। अवतरण हैं ।४०
४० यह “भद्रबाहुचरित्र" दिगम्बर भट्टारक रत्ननन्दीने बनाया है । यह ग्रन्थ कितना कृत्रिम है उसका उल्लेख पं० नाथुरामजी प्रेमीने हिन्दी-दर्शनसार-विवेचनामें साफ साफ किया है।
होता है।
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