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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રીમાન સન્તબાલજીસે કુછ પ્રશ્ન ૧૫૧ है। परन्तु इस विषयके इतिहास के स्वीकार करते हैं और आपलोक मूर्तिबारेमें तो आपने एक अक्षर भी नहीं पूजा का विरोध करते हो। लिखा कि-लौकाशाह के बाद किसने, (४) लौकाशाहके अनुयायो साधु किस समय मूत्ति-पूजाको स्वीकार आज पर्यन्त छोरा डाल मुँह पर मुँहकिया और बाद में आपके पूर्वजोंने पत्ती नहों बांधते हैं, वे हमेशांसे मुँहमूर्ति मानना कब छोडा। लौको के साधु पत्ती हाथमें रखते ही चले आए हैं, जो मूर्ति मानने वाले हैं वे भी अपने पर आप मुंह पर मुँहपत्ती बांधते हो, को लोकाशाहके अनुयायी बताते हैं यह प्रवृत्ति कबसे और किसने चलाई ?। और आप भी लोकाशाहको अपना धर्म आपने अपनी लेखमालामें इस बात का -संस्थापक और धर्मगुरु मानते हो तो जिक्र तक नहीं किया, क्योंकि-जैसा आपमें और उन लोकों के साधुओंमें फिर मूर्तिपूजाका विरोध वेसा मुँहपत्ती यह मतभेद क्यों ?। बांधने का भी तो विवाद है, फिर आप इसका इतिहास लिखना क्यों भूल (३) लोकाशाहकी परम्पराके लुंपका गए ?। लौकाशाह तथा उनके अनुयायी चार्योने तो कई एक जैन मन्दिरोंको लौकामतके साधुओंने न तो मुंह पर प्रतिष्ठा कराई, जिनके शिलालेख आज हाती बांधी और न आज भी बाँधते भी विद्यमान हैं, देखिये श्रीमान् पूर्ण हैं। तो क्या लोकाशाहका सिद्धान्त भी चंद्रजी नाहर संपादित “प्राचीन शिलालेख संग्रह' खण्ड प्रथम लेखाङ्ग १४८, (५) आज जो लौकामत कहा जाता १६८ और १८४ में क्रमशः रत्नचंद्र है उनके उपाश्रयोंमें जैनमूर्तियाँ विद्यमान सूरिणा लंपकगच्छे ” बृहत् गुजराती है। लंकागच्छके आचार्योने जैन मन्दिर लुकागच्छे x x अजयराजसूरि' और मूत्तियोंकी प्रतिष्ठा कराई। लौकामत के "अमृतचंद्रमरिणा लुकागच्छोयेन x साधु आज पर्यन्त भी मुँहात्ती हाथमें x x इत्यादि' में लुपकाचार्योने जैन रखते हैं और वे अपनेको लौकाशाहका मन्दिर भूत्तियोंको प्रतिष्ठा कराने के अनुयायी भी बताते हैं, फिर आप इनसे शिलालेख उपलब्ध हैं, और पूर्वोक्त विपरीत मान्यता रखते हुए लौकाशाहको प्रतिष्ठाकार अपने को लौकाशाहके अनुः अपना धर्म-संस्थापक और धर्मगुरु यायी बताते हैं। तो आपके गुरु लौका- समझते हो तो आप दोनोंका ( विरुद्ध शाह और प्रतिष्ठाकार व्यक्तियों के गुरु पक्ष होते हुए भी) लोकाशाह एक ही लौकाशाह एक हो व्यक्ति है या भिन्न व्यक्ति है या भिन्न भिन्न ?। यदि एक ही भिन्न ? ! यदि एक ही व्यक्ति है तो है तो आपस में विरोधभाव क्यों ? और फिर एक गुरुकी परम्परा में यह भेद भिन्न है तो प्रमाण बतावें। क्यों :-कि वे लोक तो मूत्ति पूजा शेष फिर कभी समय मिलने पर । आपको मान्य नहीं है?" For Private And Personal Use Only
SR No.521505
Book TitleJain Satyaprakash 1935 11 SrNo 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1935
Total Pages37
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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