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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAA દિગાર શાસ્ત્ર કેસે બને? ऊपर लिखित १० प्रमाणांसे ज्ञात उनकी पास कोइ चन्द्रगुप्तने दीक्षा ली। होता है कि-दिगम्बर ग्रन्थकारांने दि- उसी चन्द्रगुप्तने ही वहां पहाडो पर गम्बर सम्प्रदायकी प्राचीनता, मौर्य- तीर्थङ्कर भगवान् व भद्रबाहुस्वामीको चंद्रगुप्तकी दिगम्बरी-दीक्षा एवं श्वेता- उपासना को, अतः चन्द्रमुनिको वह म्बर मतको अर्वाचिनता सिद्ध करनेके ध्यानभूमि का नाम "चंद्रगिरि " लिए बड़ी भारी चेष्टा को है. और रक्खा गया ॥ भद्रबाहुस्वामीके नामपर बडी बडी गप्पे हमें विश्वास है कि-"द्वितीय चलाइ हैं, कि-जैसी हमें भट्टारक रत्न भद्रबाहु " यह उपनाम है, जैसा सनंदी कि कृतिमें पाई जाती हैं । म्राट् सम्पतिको पुण्याश्रव कथाकोशमें ऊपरके प्रमाणोंकी ऐतिहासिक चन्द्रगुप्त नाम दिया है । इसि प्रकार जांच की जाय, तो उनमें नं. १, ४, ६, दक्षिणाचार्य और चन्द्र ( गुप्त गुप्ति ) ७, ९ व १० को वार्ता कुछ विश्वास ये भो उपनाम ही हैं । उन सबके अके योग्य है। सली नाम १ वज्रस्वामी, २ वज्रसेनसूरि ओर ३ चन्द्रसूरि हैं। उनके परिचय जिनका सारांश यह हैद्वितीय भद्रबाहुस्वामीके समयमें । . उपर-सा हो श्वेताम्बर साहित्य में मिलते हैं। १२ वर्षका अकाल गिरा । आचार्य संघ दिगम्बर लेखको सिलसिलावार को साथमें लेकर दक्षिणमें-कटवपमें जैन, जैन इतिहास से बिछुडे हुए थे, एवं जा पधारें । संघको एक मुनिजीके साथ श्वेताम्बर जैन साहित्य से अनभिज्ञ थे, आगे वढनेकी फरमाश की ओर आपने अतः उन्हों ने कल्पना की दौड से इ तो साधुओंकी साथ एक पहाडी के ऊपर तिहास बनाना शुरु कर दिया, जो अनशन स्वीकारा । संघको साथमें गये श्वेताम्बर दिगम्बर के भेद में दिवाल मुनिजी जिन्दे रहे, वे अकालके पश्चात् -सा बन चूके है । भद्रबाहुचरित्र भी दक्षिण से लोटकर उत्तरमें आये । बाद इसी हो ढंग के आविष्करण है। में ही श्वेताम्बर दिगम्बरका भेद हुआ। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख दक्षिणाचार्य श्रवण बेलगोलमें पधारें, है किजीवितशेषम् अल्पतरकालम् अबबुभ्याध्वनः सुचकितः तपःसमाधिम् आराधयितुम्, आपृच्छय निरवंशेषेण संघम् , विमृज्य शिष्येणैकेन, पृथुलकास्ताणतलासु शिलासु शोतलासु स्वदेहम् सन्यस्याराधितवान् क्रमेण सप्तशतम् ऋषीणाम् आराधितम् इति जयतु जिनशासनम् ।। जैन सिद्धांतभास्कर किरण १ पत्र १५ से उद्धृत ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521503
Book TitleJain Satyaprakash 1935 09 SrNo 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1935
Total Pages37
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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