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श्री जैन सत्य प्राश
श्री स्वामीजी १० पूर्वी के धारक थ, जाति स्मरण ज्ञानवाले थें. विद्या-लब्धि से युक्त थ । आपने १२ वर्षोंके अकाल म चतुर्विध संघको "पुरी" में ले जा रक्खा । बाद में आपने दक्षिण में विहार किया, अपने शिष्य आचार्य वज्रसेनसूरिको जिन्दा रहने की आज्ञा दे कर अकालकी शान्ति-सुभिक्षा का निशान बताया, और एक पहाडी पर जा कर सभी साधुओं के साथ वीर निर्वाण संवत् ५८४ में अनशन कीया। जिस पहाड का नाम हैं "रथावर्तगिरि" श्रीवज्रस्वामीजीने एक क्षुल्लक को अनशन से रूका था, उसिने रूकावट के स्थानमें ही अनशनत्रत स्वीकारा । आचार्य वज्रसेन मूरिने सोपारकनगर (सोपारा - बम्बइ ) में सुभिक्ष के निशानसे श्रेष्ठि जिनदन के सारा कुटुम्ब को मृत्यु से बचाया व उन्हे जिनदीक्षा दी । शेठ जिनदत्त शेठानी ईश्वरी ओर उसके पुत्र नागेन्द्रचन्द्र (चन्द्रगुप्त) नि. वृति व विद्याधर जैनश्रमण बनें । उन चारों बन्धुआ से चार कुल निकले हैं। उन में चन्द्र (चन्द्रगुप्त ) सूरिकी शिष्य परंपरा चन्द्रकुल के नामसे विख्यात
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(आवश्यक निर्युक्ति-वृत्ति, चूर्णि, मरणसमाधि पइन्नय गाथा ४६८ से ४७८, कल्पसूत्र-वृत्ति)
मतलब यह है कि — वज्रस्वामी (द्वितीय भद्रबाहुस्वामी) वज्रसेनसूरि (दक्षिणाचार्य) चन्द्रमुरि (चन्द्रगुप्ति ) ओर उनके शिष्य प्रसिद्ध स्तुतिकार सामंतभद्र (स्वामी समन्तभद्र ) को श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों समाज यानी सारा जैन आलम पूज्यतम मानते थे- मानते है। श्वेतांबर दिगम्बर का सम्प्रदाय भेद उनके समयमें नहीं था, किन्तु नींव गडी थी ।
जैन साहित्य में लिखा है किरथवीरपुर में सहस्रमल-शिवभूति नामका राजमान्य साहसिक पुरुष था । उसने आचार्य कृष्णाचार्य की पास जैन दीक्षा ली । राजाने एक दिन उसे रत्नकंबल वस्त्र दिया। शिवभूति मुनि बहु मूल्यवान् मुलायम व दुष्प्राप्य के जरिए उस रत्नकंवलको बहोत संभालते थे, बांधकर रखते थे। आचार्यने देखा कि -शिवभूति के दिलमें रत्नकंबलने ममताकी बुनियाद जमा दी है। जहां ममता है वहां परिग्रह है, तो इस ममता की
जड उखाड देना चाहिए। (अपूर्ण)
२२ श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं० १०८ में भी चन्द्र (गुप्त ) से चन्द्रकुलकी उत्पत्ति मानी है- तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धा—दभूददोषा यति रत्नमाला ॥ यह श्लोकमें जो सूचन है वो ही अर्थसूचन विशाखदत्त (वि-शाख - दत्त) नाम में भी है।
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