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दिया है) परसे अपने को लगभग श्वेताम्बर ग्रन्थोंके अनुसार श्री शकसंवत्की पांचवी छठी शताब्दीका भद्रबाहुका समय वीर निर्वाण संवत् सिद्ध करता है ॥ दिगम्बर जैनग्रन्थोंके १५६ से १७०, तदनुसार इस्वीपूर्व अनुसार भद्रबाहुका आचार्यपद वीर नि- ३७१ से ३१७ तक सिद्ध होता है,
णि संवत १३३ से १६२ तक २७(२९) इसका चन्द्रगुप्तके समयके साथ प्रायः वर्ष रहा, जो प्रचलित वी०नि० संवत् समीकरण होता है । के अनुसार इस्वी पूर्व ३९४ से ३६५ ( माणिकचन्द जैन ग्रन्धमाला तक पडता है, तथा इतिहासानुसार च- -बंबइ से प्रकाशित पुस्तक नं. २८ न्द्रगुप्त मौर्य का राज्य इस्वीपूर्व ३२१ जैन शिलालेख संग्रह. पृष्ट ६३, से २९८ तक माना जाता है, इसप्रकार ६४, ६६ । वर्धमान जैन आश्रम-खाम भद्रबाहु ओर चन्द्रगुप्तके कालमें ६७ गांव, (बिरार) से प्राप्य श्वे० म० स० वर्षों का अन्तर पडता है।" दिग्दर्शन पृष्ट ५० से ५४ )।
१८ ई० पू० ३२५ में सिकन्दरने भारतपर आक्रमण किया और इस्वी०पूर्व ३२२ में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बेठा । ये दो तिथियां भारतके प्राचिन इतिहासमें निश्चित समझ ली गई ।
-प्रो० सत्यकेतु विद्यालंकार कृत मौर्य साम्राज्यका इतिहास पृष्ट-३६ । १९ खामगांवके यतिवर्य बालचन्द्राचार्यजी समीकरण करते हैं कि-दुसरा गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त उज्जयिनीमें हुआ है, जिसका समय इस्वीसन ३७५ है। एवं दिगम्बर सम्प्रदायमें दो तीन भद्रबाहु भी हुवे हैं । इस लिए यह संभव है कि-कोइ गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त
और द्वितीय भद्रबाहु की कथाको मौर्य और श्रुतकेवलीकी कथा मानकर भूलसे लिख डाला हो ।
-श्वेताम्बर मत समीक्षा दिग्दर्शन पृष्ट ८२ ।
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