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________________ पूजनीय हैं संत हमारे ! - अनूपचन्द न्यायतीर्थ हमारी है । भारी संतों से करबद्ध प्रार्थना, नित- प्रति यही दूर करो अज्ञान - अंधेरा, आवश्यकता ये जो संसार - अंत को चाहें, सच्चे संत निराले वे । इन्द्रिय- दमन, शमन इच्छाएँ, मन-वश करनेवाले वे ।। क्रोध - मान-माया को तजकर, लोभ-मोह को छोड़ा है । राग-द्वेष लेश नहिं जिन के, दुनिया से मुँह मोड़ा है ।। हित- मितभाषी, श्रुत- अभ्यासी, दया हृदय में धारी है । वत्सलता की मूर्ति मनोहर, प्राणी- प्रति हितकारी है ।। है ।। भौतिकता की चकाचौंध से सदा दूर जो रहते हैं । अपने पद की मर्यादा - हित, कष्ट अनेकों सहते हैं ।। रूढि - अंधविश्वास बुरा कह, जो सन्मार्ग दिखाते हैं । सत्य-अहिंसामय जीवन का सच्चा-पाठ पढ़ाते हैं ।। अच्छा आत्म-प्रशंसा परनिन्दा अरु, यश-अपयश की चाह नहीं है । छा-बुरा कहे कोई नहीं, उसकी कुछ परवाह नहीं है । । वंदनीय अभिनन्दनीय हैं, स्वयं तिरे औरों को तारे । ऐसे संत निरामय निस्पृह, पूजनीय हैं सदा हमारे । । ** कृपया ध्यान दें भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डग्राम ( बासोकुण्ड ) के दर्शन मैंने किए हैं और वही भगवान् महावीर की जन्मभूमि है । विद्वान्, त्यागी एवं समाज को इस विवाद में पड़कर विग्रह पैदा नहीं करना चाहिये और सभी को क्षेत्र के विकास में सहयोग देना चाहिये । – आचार्य भरत सागर, सोनागिर सिद्धक्षेत्र (म. प्र. ) प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2003 (संयुक्तांक ) 87
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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