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.. चौथे. दिगम्बर-आगम के अनुसार मुनि महावीर ने प्रथम-पारणा 'कूल' ग्राम के राजा कूल के राजमहल में की थी - (उत्तरपुराण, पर्व 74, श्लोक 318-322)। वर्तमान नालंदा के निकट स्थित बड़ागाँव को कुण्डपुर मान लेने पर 12-15 किलोमीटर (आठ-दस मील) की परिधि में तीन विशाल (?) राज्यों की सीमाएँ निश्चित करना होंगी; यथा- महाराजा सिद्धार्थ का राज्य, राजा कूल का राज्य और श्रेणिक राजा का मगध राज्य। उत्तरपुराण' के वर्णन के अनुसार राजा चेटक की नगरी वैशाली को भी इन राज्यों के निकट होना. अपेक्षित है, जिसकी चर्चा आगे की गयी है। संयोग से राजा श्रेणिक की राजधानी राजगृह (पंच पहाड़ी) की स्थिति निश्चित है और अविवादित भी है। यह भी ध्यातव्य है कि, 'त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरित्र' के अनुसार 'नालंदा पाडा' राजगृह से सम्बद्ध था। ऐसी स्थिति में राजगृह को केन्द्र-बिन्दु मानकर आगम, इतिहास और भूगौलिक स्थिति के प्रकाश में कुण्डपुर, कूल्हपुर और मगध-राज्य की सीमाएँ और क्षेत्र अपर-पक्ष को सहज-स्वीकृत-स्वरूप में करना अपेक्षित है, अन्यथा सभी निष्कर्ष कल्पनामात्र होंगे। समग्रता में विचार करनेपर दिगम्बर-जैन-साहित्य के अनुसार भी दूरगामी कल्पना से नालंदा के निकट इन राज्यों एवं कुण्डपुर का होना सिद्ध नहीं होता। फिर समाज की कथित धारणा को अनदेखा कर यह भी सुनिश्चित करना होगा कि नालंदा के निकट-स्थित कुण्डपुर बड़ागांव कैसे हो गया। यदि वैशाली' से 'बसाड़' और 'कुण्डपुर' से 'बासोकुण्ड' नहीं हो सकता तो 'कुण्डपुर' से 'बड़ागांव' कैसे हुआ? श्वेताम्बर आगम में भी भगवान महावीर की जीवन-घटनाओं को लेकर बड़ागांव का कहीं कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। शोध-खोज में यथार्थ-तथ्यों का ही महत्त्व होता है। खींच-तानकर अपनी आग्रह-युक्त बात सिद्ध नहीं की जासकती। __ पाँचवे, प्रज्ञाश्रमणी जी के अनुसार काल-परिवर्तन के साथ-साथ देश और प्रदेशों की दूरियाँ काफी विषम-परिस्थितियों को प्राप्त होकर 96 मील की परिधि एक-दो किलोमीटर में सिमटकर रह गई है। इस दृष्टि से मगध के राजगृही से 12 किलोमीटर की दूरी पर कुण्डलपुर हो सकता है। इस सम्बन्ध में हमारा इतना ही निवेदन है कि जैनदर्शन के अनुसार छह द्रव्यों में जीवद्रव्य मात्र संकोच-विस्तार शक्तिवाला है। पुद्गल द्रव्य, रूप, रस, गंध, वर्ण, स्पर्शवाला है। पुद्गल अणु और स्कन्धरूप में रहकर शाश्वतता लिए है। उसमें ऐसा संकोच-विस्तार जैनागम के प्रतिकूल है। आगम में भूमि, पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक एवं पृथ्वी-जीव की व्याख्या बहुत स्पष्ट है। इनके मध्यम अंत:सम्बन्धों एवं लक्षणों के अनुसार प्रज्ञाश्रमणी जी का उक्त तर्क-कुतर्क ही कहा जाएगा। फिर रूपांतरण की प्रक्रिया भी अति-दीर्घकालिक होती है। पृथ्वी में इतना संकोच 2500सौ वर्षों में हो सकता है या नहीं इसे सिद्ध करने के लिये प्रज्ञाश्रमणी जी को एक अंतर्राष्ट्रीय-सम्मेलन करवाना चाहिये। उसके निष्कर्षों से यह पता चल जाएगा कि
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)