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अंकित है।' दोनों ओर समान लिखावट के रहते उसके एक ओर चिह्नों के साथ सीधे उल्टे के क्रम में पाँच स्वास्तिक भी एक पंक्ति में बने हैं। चिह्नों से यदि ध्वनि-समूह 'य व प्राण' सही प्राप्त हुआ है, तो उसका अर्थ होता है पाँच स्वास्तिक अर्थात् पंच णमोकार 'जो प्राणों की रक्षा करते हैं।' इन चिह्नों को यदि उल्टे क्रम में भी पढा जाएगा अर्थात् 'प्राण वृ य' अथवा 'प्रणव य' तो भी अर्थ समान ही रहेंगे – 'प्राणों की रक्षा करता है जो' अथवा 'प्रणव है जो' इस पट्टिका के दूसरे फलक पर पुन: 'T' अंकित हैं साथ ही 'VID' चिह्न के साथ एक शेर की आकृति चिह्नित है, मानों कहा जा रहा है- “मार्ग में ढोल (पणव) की ध्वनि के समान ‘णमोकार' जंगली जीवों से प्राणों की रक्षा करता है।" अब यदि उपरोक्त चिह्न 3' से 'संचरण' अथवा 'सतिया' का उच्चारण प्राप्त होता है, तो अर्थ होगा 'संचरण के दौरान' अथवा 'सतिया' अर्थात् 'ओंकार/णमोकार प्राणों की रक्षा करता है।' ___ हड़प्पा के अभिलेख के इस वाचन-प्रयास से एक ओर णमोकार एवं ओंकार ध्वनियाँ पर्यायवाची स्थापित होती दिख रही है, वहीं उसमें जैनों के मूल-मंत्र 'पंच णमोकार' की प्राचीनता स्थापित होती है। साथ ही प्रणव' शब्द 'प्राण वृ' अथवा वृ प्राण' के रूप में स्वास्तिक (णमोकार) अथवा/ओंकार) को प्राणरक्षक के रूप में परिभाषित भी करता है। संदर्भग्रन्थ-सूची 1. ए.के. कुमारस्वामि, द एच.आर.डी. कार्यक्रम, जयपुर (1983) पृष्ठ 14-15 2. स्वामी बिरजानंद, पुरातत्त्व संग्रहालय, झज्जर, हरियाणा 3. डॉ. रमेश जैन, टेस्ट डिसाइफरमेन्ट ऑफ द हड़प्पन इंस्क्रिपशन्स, पुराभिलेख पत्रिका,
वर्ष 2001 4. जॉर्ज वूलर, इण्डियन पैलियोग्राफी, ऑरियंटल बुक्स रिप्रिंट कार्पोरेशन 1980, पृष्ठ 26 5. डॉ. रमेश जैन (2001 पृष्ठ 56-88) 6. डॉ. रमेश जैन, हड़प्पन वृत्र एण्ड फिनीशियन एल्फाबेट्स गिव इण्डिया इट्स ___हिस्टोरियोजियोग्राफिकल एन्टीटीज, 'भारतीय पुरातत्व परिषद्' का बड़ोदरा (2000) में
अधिवेशन 7. इरावती महादेवन, इण्डस स्क्रिप्ट, 1977, पृष्ठ-क्रमांक 810-811 'प्राकृतविद्या' के वर्ष 12, अंक 3, अक्तूबर-दिसम्बर '2000 ई. में पृष्ठ संख्या 51-58 तक प्रकाशित लेख 'हड़प्पा की मोहरों पर जैनपुराण एवं आचरण के संदर्भ' के लेखक के रूप में स्पष्टसूचना न होने के कारण असावधानीवश डॉ. रमेश चन्द्र जैन बिजनौर (उ.प्र.) का परिचय 'लेखक-परिचय' के रूप में प्रकाशित हुआ था। वह लेख वस्तुत: डॉ. रमेश जैन, भोपाल (म.प्र.) के द्वारा लिखित था। अपनी इस असावधानी के लिए खेद व्यक्त करते हुए हम पुन: स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उक्त लेख के लेखक डॉ. रमेश जैन, भोपाल हैं। प्रस्तुत आलेख भी उन्हीं की सारस्वत-लेखनी से प्रसूत एक अन्य गरिमापूर्ण-प्रस्तुति है। –सम्पादक
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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