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ब्राह्मी, रोमन व ग्रीक लिपियों के विपरीत फिनीशियन-लिपि को दाहिने हाथ की ओर से प्रारम्भ करके उर्दू के समान पढ़ा जाता है एवं इस लिपि का इतिहास हड़प्पा-संस्कृति के मान्य विसर्जन-काल से लगभग एक हजार वर्ष बाद प्रारम्भ होना समझा जाता है।
हाँ तो फिनीशियन का 'जेजिन' नामक ध्वनि चिह्न 2' उस वर्णमाला का सातवाँ अक्षर है। संगीत के अनुशासन में सरगम का सातवाँ स्वर 'नी' अर्थात् निषाद होता है। इसी वर्णमाला के 21वें अक्षर :-' शिन अर्थात् 'स' से आरम्भ करके यदि उल्टे क्रम से चलें, तो आगे के सात अक्षर सरगम के सात-स्वरों से अद्भुत ध्यन्वयात्मक-समानता रखते प्रतीत होते हैं। इनमें 16 से 14 तक के तीन अक्षर '0', '# ' एवं ' ' में क्रम कुछ गड़बड़ाया-सा लगता है। हो सकता है इनमें संगीत के अनुशासन में काल की निषाद की अवधारणा के समान कोई नियम लगता हो। इस वर्णमाला का 'O' एजिन (अंग्रेजी का ओ) अक्षर स्वास्तिक की वृत्ताकार-गति की ओर इशारा करता है। इसीप्रकार 15वें अक्षर 'सामेख' से यद्यपि 'स' ध्वनि प्राप्त होती है मगर इसी अक्षर का संबंध रूपाकार के आधार पर ब्राह्मी के '1 ' (न) या 'I' (ण) से स्थापित होता है। इसमें स्वास्तिक-चिह्न के 5' कट्टस-आधारित रूपाकार का जुड़ाव परिलक्षित होता है। इसीप्रकार 14वां)' नू (न) पुन: सर्पिल-रेखाओं के कट्टसचिन का आधार हो सकता है; अत: कहा जा सकता है ब्राह्मी के 1' अक्षर के समान ही इन तीन अक्षरों .0', '+' एवं का संबंध स्वास्तिक से जुड़ता है। इसमें 'न' और 'ओ' ध्वनियों की स्वास्तिक के रूपाकार में उपस्थिति साफ दिखाई देती है। यदि स्वास्तिक में इन दोनों ध्वनियों 'न' व 'ओ' को हम ठीक से पहचान रहे हैं, तो स्वास्तिक-चिह्न को णमो' रूप में भी पढ़ा जाएगा। इस आधार पर णमोकार' एवं 'ओंकार' शब्दों के पर्यायवाची-गुण
को समझा जा सकता है। - हड़प्पा-लिपि के वाचन-प्रयास के क्रम में उस लिपि में आने वाले ' अथवा
) चिह्नों को सामान्यत: 'न' ध्वनि देनेवाले चिह्न के रूप में पहचाना जाता है, जिसके परिणामस्वरूप (,' चिह्नों से 'न संभव' शब्द-समूह (संभव नहीं) प्राप्त होता है। इसमें आगे विस्तार करते हुए जब ' चिह्न का मूल-स्वर 'अ' की ध्वनि प्रदान की गई, तब 'अ संभव' शब्द-समूह प्राप्त हुआ, जिसका अर्थ भी समान (असंभव अर्थात् संभव नहीं) ही रहा। इससे 'अ' एवं 'न' ध्वनियों की प्रकृति में समानता समझ में आई। इसीप्रकार णमोकार व ओंकार से होते हुए 'प्रणव' व 'प्रणाम' को समझा जा सकेगा। ये दोनों शब्द 'प्रणव' व 'प्रणाम' मात्र ध्वनि-साम्य ही नहीं रखते; बल्कि कहीं गहरे में जैन तथा वैदिक आस्थाओं के जुड़ाव की ओर भी इंगित करते हैं।
यहाँ यह उल्लेखनीय हो जाता है कि महादेवन के अनुसार हड़प्पा के लेख-क्रमांक 4306-217101/28201 में जो पकी-
मिट्टी की एक पट्टिका पर उसके दोनों ओर
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प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)