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उत्तरी-पश्चिम समूह
धोंदा-द्वार के उत्तर में यह मूर्ति-समूह है। इनमें से आदिनाथ की मूर्ति प्रमुख है, जिसके लेख के अनुसार वह वि.सं. 1527 में प्रतिष्ठित हुई थी। उत्तर-पूर्व समूह
यह समूह मध्यवर्ती द्वार के पूर्व प्रवेश के समीप है। यहाँ की मूर्तियाँ छोटी-छोटी हैं तथा उन पर अभिलेख न होने के कारण उनका अध्ययन नहीं किया जा सका। दक्षिणी-पूर्वीसमूह ___ गंगोला-टैंक के समीप यह सबसे बड़ा एवं प्रसिद्ध मूर्ति-समूह है। यहाँ कई मूर्तियाँ हैं। किन्तु इनमें लगभग 21 मूर्तियाँ प्रधान हैं, जिनमें से 18 मूर्तियाँ तो 20 फीट से 30 फीट तक ऊँची हैं तथा बहुत-सी मूर्तियाँ 8 फीट से 15 फीट तक ऊँची हैं। ऊपर से लेकर आधे मील की लम्बाई में पूरी पहाड़ी पर ये मूर्तियाँ विराजमान हैं। __रइधू-साहित्य एवं अन्य उपलब्ध विविध सामग्री के आधार पर लिखित यही है गोपाचल-दुर्ग की प्रेरक-कहानी। उसकी जैन-मूर्तियाँ अपनी भव्यता एवं विशालता में होड़ लगाती-सी प्रतीत होती हैं। जिन मर्मज्ञ कुशल-कलाकारों ने उन्हें गढ़ा होगा, वे आज हमारे सम्मुख नहीं हैं, उनके नाम भी अज्ञात हैं, उन्होंने अपनी ख्याति की परवाह भी न की होगी, किन्तु उनकी अनोखी कला, अनुपम शिल्प-कौशल, अतुलित धैर्य एवं अटूट साधना मानों इन मूर्तियों के माध्यम से हमारे सामने साकार उपस्थित हैं। और उनके निर्माता संघवी कमलसिंह, खेल्हा, असपति, नेमदास एवं सहदेव के सम्बन्ध में क्या लिखा जाए? उनके आस्थावान् विशाल हृदयों में जो श्रद्धा-भक्ति समाहित थी, उसके मापन-हेतु विश्व में शायद ही कहीं कोई मापयन्त्र हमें मिल सके। हाँ, जिनके दिव्य-नेत्र विकसित हैं, जो कला-विज्ञान की अन्तरात्मा के निष्णात हैं, जो इतिहास एवं संस्कृति के अमृतरस में सराबोर हैं, वे उक्त मूर्तियों की विशालता एवं कला का सूक्ष्म-निरीक्षण कर उनके हृदय की गहराई का अनुमान अवश्य लगा सकते हैं। और इन मूर्तियों के निर्माण कराने की प्रेरणा देकर उनमें प्राणप्रतिष्ठा कराने वाले रइधू, जिनकी महती कृपा से कुरूप, उपेक्षित एवं भद्दे आकार के कर्कश शिलापट्ट भी महानता, शान्ति एवं तपस्या के महान आदर्श बन गये, ऊबड़-खाबड़ एवं भयानक स्थान तीर्थस्थलों में बदल गये,
उत्पीड़ित एवं सन्तप्त प्राणियों के लिये जो आराधना, साधना एवं मनोरथ-प्राप्ति के ' पवित्र मन्दिर एवं वरदानगृह बन गये। ज्ञानामृत की अजस्र-धारा प्रवाहित करनेवाले उस महान् आत्मा, सुधी, महाकवि रइधू के गुणों का स्तवन भी कैसे किया जाए? मेरी दृष्टि से उसके समय के कार्यों का प्रामाणिक विवेचन एवं प्रकाशन ही उसके गुणों का स्तवन एवं उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी तथा साहित्य और कलाजगत् तभी उसके महान् ऋण से उऋण हो सकेगा।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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