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करने) में परमार्थ से कोई अन्तर/भेद नहीं कहा है।
इस श्रुत की परम्परा के संरक्षण की दृष्टि से शास्त्रों को लिखे जाने एवं उन्हें सुपात्र व्यक्तियों को दिए जाने आदि का निर्देश भी आचार्यों ने दिया है। वे लिखते हैं
“आगम-सत्थाई लिहाविदूण दिज्जंति जं जहाजोंग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा।।"
-(आचार्य वसुनंदि, वसुनंदि श्रावकाचार, 237) ___ अर्थ :- जो आगमशास्त्र लिखवाकर यथायोग्य पात्रों को दिए जाते हैं, उसे 'शास्त्रदान' जानना चाहिए तथा तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यंत के जिनेन्द्रों के वचनों का (आगम का) अध्यापन कराना अर्थात् पढ़ाना भी 'शास्त्रदान' है। . ___यद्यपि आगमग्रन्थ आत्महितकारी तत्त्वज्ञान से ओतप्रोत है, फिर भी जिन लोगों की रुचि एवं प्रवृत्ति इनके अध्यापन या स्वाध्याय आदि में नहीं है, उनके बारे में आचार्य लिखते हैं- "दुर्मेधेव सुशास्त्रे वा तरणी न चलत्यत: ।”
-(आचार्य शुभचंद्र, पाण्डवपुराण, 12/254) अर्थ :- जैसे दुर्बुद्धि या अनाड़ी व्यक्ति से नाव चलाने पर भी नहीं चलती है, इसीप्रकार राग-द्वेष-मोह के अतिरेक से पीड़ित व्यक्ति की बुद्धि भी आत्महितकारी शास्त्रों में चलाने पर भी नहीं चलती है। ___आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द स्वामी, अमृतचन्द्र सूरि आदि प्राचीन आचार्यों ने श्रुत-परम्परा का भलीभाँति संरक्षण, संपोषण तो किया ही; उसे आगामी सन्ततियों के लिए लिपिबद्ध कर एवं शिष्य-परम्परा को सिखाकर अपेक्षाकृत-चिरस्थायी भी बनाया। वर्तमान-काल में श्रुतसंरक्षण एवं श्रुतप्रभावना के कार्य में परमपूज्य आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य समन्तभद्र जी, गणेश प्रसाद जी वर्णी, पं. गोपालदास जी बरैया, डॉ. ए.एन. उपाध्ये. डॉ. हीरालाल जैन, पं. कैलाश चन्द जी शास्त्री, पं. फूलचंद जी सिद्धान्ताचार्य, डॉ. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, पं. कालप्पा निटवे शास्त्री आदि संतों एवं मनीषियों ने भी अभूतपूर्व कार्य किया है। ____ किंतु आज इस परम्परा के समर्थ ध्वजवाहक दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। हमारे पाँच हजार वर्ष प्राचीन माने जानेवाले 'कातंत्र-व्याकरण' को पढ़ानेवाले जैन-विद्वानों का ढूँढे भी पता नहीं चल रहा है, जो कि मात्र दो सौ वर्ष पहिले तक सारे देश में पढ़ाया जाता था। यह शोचनीय-स्थिति है। इसीप्रकार स्वतंत्र-भारत में संस्कृत को तो आजादी मिली है, किंतु प्राकृतभाषा को अभी भी आजादी नहीं मिली है। वह प्रचार-प्रसार में नहीं है। इसकी पोथियाँ वेष्टनों में बद्ध हैं। हमारे आगमों की भाषा का विधिवत् ज्ञान हमारे संतों और विद्वानों को भी नहीं है। यह गंभीर-चिंता का विषय है। इसके बारे में संतों, विद्वानों
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)