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________________ अपनी अध्यक्षता के काल में उल्लेखनीय कार्य किये हैं। उसी विद्वद्- परिषद की अध्यक्षता मुझ जैसे अल्पज्ञ को सौंपी गई है, जिसका निर्वहण आप सब विद्वानों के सहयोग से संभव हो सकेगा। पूज्य वर्णी जी का लगाया गया यह धर्मप्रभावक-पौधा अपनी गतिशीलता को बनाये रखे, इसके लिए हमारा और आपका परम-कर्त्तव्य हो जाता है कि इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है—विद्वानों का आपसी सौहार्द, वात्सल्य, एकता और रुचि की प्रकर्षता। आप और हम सब मिलकर संगठित होकर ही धर्मप्रभावना का कार्य संपन्न कर सकते हैं। आदर्श विद्वज्जीवन आचार्य अमृतचन्द्र ने 'प्रभावना' की परिभाषा करते हुए कहा है आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। . दान-तपो-जिनपूजा-विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।। -(पुरुषार्थ सि०उ० 30) धर्मप्रभावना करनेवाले को सर्वप्रथम अपनी आत्मा को रत्नत्रय के तेज से प्रभावित करना चाहिए। पश्चात् दान, तपश्चरण, जिनेन्द्र पूजा एवं विद्या के प्रचार द्वारा धर्म की प्रभावना करनी चाहिए। यहाँ धर्मप्रभावना के लक्षण में आचार्यश्री ने संकेत दिया है कि धर्मप्रभावना का कार्य स्वयं की आत्मप्रभावना से प्रारंभ करना चाहिए, तभी दान, तप जिनेन्द्रपूजा और जिनविद्या के प्रचार-प्रसार से धर्म की सच्ची प्रभावना हो सकती है। क्योंकि नेत्रविहीन व्यक्ति दूसरों को मार्गदर्शन कैसे करा सकता है? पूज्य वीजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था-"विद्वानों से क्या कहूँ, उनसे तो मैं यही चाहता हूँ कि आप जैनसमाज के मार्गदर्शक हैं, अत: अपने आपको इतना निर्मल बनाओ कि समाज आपको देखकर ही जैनधर्म समझ जाए।". एक नीतिकार ने 'पंडित' की परिभाषा करते हुए कहा है मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । ___ आत्मवत् सर्वभूतेषु य: जानाति स: पण्डितः ।। जो परस्त्री को माता के रूप में देखता है, एवं पर धनादि को मिट्टी के ढेले के समान देखता है, और अपनी आत्मा के समान सभी आत्माओं को जानता है, वही पंडित है। ऊपर के दो उद्धरण सदाचार से संबंधित हैं और नीचे का उद्धरण सम्यक्-विचार से संबंधित है। विद्वान् सभी आत्माओं में कारण-परमात्मा के दर्शन करता है, अत: उसका कोई विरोधी कैसे हो सकता है? वह भूले हुए पर ही घृणा नहीं, करुणा करता है। क्योंकि पथ भूले हुए को मार्गदर्शन देना धर्मात्मा का परम-कर्तव्य होता है। वह किसी को भी दुतकारेगा थोड़े ही? वह तो सब तरह से सहयोग देकर उसे मार्ग दिखायेगा। पूज्यश्री आचार्य प्रवर विद्यानंद जी के शब्दों में— “मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ।" ___विद्वान् धर्मात्मा की विश्वमैत्री की दृष्टि होती है। उसका कोई दुश्मन कैसे हो सकता है? जो सच्चा जैन है उसका कोई दुश्मन नहीं होता और जिसका कोई दुश्मन होता है, प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 0087
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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