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सम्पादकीय
ध्वज से दिशाबोध
-डॉ० सुदीप जैन
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'ध्वज' - गतिसूचक (जीवन-चेतना की जागृति का प्रतीक चिह्न) है । 'ध्वज' शब्द अनेकों प्रतीकों के लिए विभिन्न सन्दर्भों में जाना जाता है। अपनी 'विजय' की घोषणा के लिए पराजित राजा के राजमहल पर विजयी राजा अपना ध्वज फहरा देता है, तो संधि एवं शरणागत के अभिप्राय को संप्रेषित करने के लिए श्वेत-ध्वज फहरा देते हैं । विरोध या अनादर का भाव सूचित करने के लिए काली ध्वजा लगायी जाती है, तो शोक की सूचना के लिए ध्वजा को आधा झुका दिया जाता है। ज्योतिषशास्त्री आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को ध्वजा की दिशा देखकर उस वर्ष की वर्षा के बारे में सटीक अनुमान करते हैं । काव्यशास्त्रियों को फहराती ध्वजायें स्वर्ग-अपवर्ग को स्पर्श करने के लिए लालायित प्रतीत होती हैं; तो न्यायशास्त्रियों को हेतुपरक पहिचान देने के लिए 'ध्वज' की उपयोगिता लगती है, इसीलिये वे 'अग्नि' को 'धूमध्वज' अर्थात् 'धुआँ ही है ध्वजा जिसकी ' – ऐसा कहते हैं। गौरव के क्षणों में भी ध्वज को फहराने की परम्परा है, इसीलिये स्वतन्त्रता - - दिवस एवं गणतन्त्र दिवस जैसे राष्ट्रिय पर्वों पर ध्वज फहराया जाता है । 'ध्वज' का आरोहण 'उत्थान' का एव अवरोहण (उतारना) 'पतन' का प्रतीक माना जाता है। पूजन - विधान- पंचकल्याणक महोत्सव आदि विशिष्ट - अनुष्ठानों का शुभारम्भ 'ध्वजारोहण' करके ही करते हैं; क्योंकि यह शुभसंकल्पसिद्धि का निमित्त माना जाता है । नूतन-संवत्सराम्भ के समय भी भवनों, प्रतिष्ठानों, जिनमन्दिरों आदि के शीर्षभाग पर नवीन ध्वज फहराने की प्राचीन परम्परा इस देश की आज भी अवशिष्ट है 1
'ध्वज' को प्रेरणा, आस्था एवं समर्पण आदि का प्रतीक माना जाता है। व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व भी 'ध्वज' के समक्ष नतमस्तक होता है तथा अपने संस्कारों, संगठन एवं समष्टि के प्रति समर्पितभाव से क्रियाशील होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
जैन - परम्परा में भी ध्वज का व्यापक महत्त्व माना गया है। अनेकों व्यक्ति जैनध्वज के स्वरूप को लेकर दुविधा की स्थिति में रहते हैं कि इसका आकार, वर्ण, परिमाण आदि कितना - कैसा होना चाहिये? वर्षों तक इसी ऊहापोह में समय बीता और जिसे जैसा समझ
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प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर '2001