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________________ का दु:ख सहन करना पड़ता है, जब तक कि वह स्वयं तप कर मोक्ष प्राप्त न कर ले। इस दु:ख से उसे कोई ईश्वर नहीं बचा सकता, उसे स्वयं ही आत्म-कल्याण की राह पर चलना होता है। केरल में पुनर्जन्म के सिद्धांत में व्यापक विश्वास भी जैन-सिद्धांतों के व्यापक-प्रचार का परिणाम जान पड़ता है। केरलचरित्रम्' के शब्दों में, “ईस्वी आठवीं-नवीं शताब्दी में प्रचलित जैनधर्म के सिद्धांतों के अनुसार जो जीव इहलोक के सुखों से अतृप्त होकर मर जाता है, उसका पुनर्जन्म होता है।" – (पृ० 1131) शिक्षा का प्रारंभ 'नमोस्तु जिन' से 'प्राकृत' और 'मलयालम'-संबंधी अध्याय में यह कुछ विस्तार से बताया गया है कि केरल में बच्चों की शिक्षा का प्रारंभ नाना मोना' से शुरू होता था, जिसका अर्थ नमोस्तु' है। किंतु इस संबंध में यह याद रखने योग्य है कि इस शब्द का वास्तविक संबंध जैन-परम्परा से है। बौद्ध तो 'शरणम्' तक सीमित रहते थे। खेद की बात है कि बौद्धधर्म के माननेवाले अमरसिंह ने 'अमरकोष' में 'जिन' शब्द का केवल बुद्धधर्म-संगत पर्याय देकर जैनधर्म के साथ न्याय नहीं किया। जिन' शब्द बुद्ध से भी प्राचीनकाल से जैन-देवता या तीर्थंकर के अर्थ में प्रयुक्त होता आ रहा है। इस संबंध में स्वयं गौतमबुद्ध का कथन जिननिकेतन श्रीमूलवासम्' नामक प्रकरण में देखिए। 'केरल गजेटियर' ने भी अमरकोष' का पर्याय दोहरा दिया ऐसा लगता है। उसके पृ० 241 पर यह उल्लेख है, "It was the practice in Kerala to initiate first lessons in reading and writing with the ceremonial invocation of Jina or Buddha. Namostu.. Jina was later on replaced by the Brahmin gurus as Hari Sri Ganapathaye Nama." पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि 'जैन' शब्द ही 'जिन' से बना है तथा जो जैनों के परस्पर अभिवादन से परिचित हैं, उन्हें यह ज्ञात होगा कि जैन एक-दूसरे से मिलने पर जयजिनेंद्र का ही प्रयोग करते हैं। बुद्ध के लिए जिन' शब्द अधिक नहीं चला। केरल में तो उनका मत कभी का लुप्तप्राय: हो चुका था। शिक्षा के क्षेत्र में जैनों का योगदान केरल में आज भी स्कूल के अर्थ में प्रचलित शब्द 'पळळिक्कूटम्' से भी सूचित है। केरल के जैन मंदिरों, मठों के साथ विद्यालय हुआ करते थे और भारत के अनेक स्थानों पर आज भी होते हैं । इलंगो अड़िगल उसीप्रकार के मठ या मंदिर में निवास करते थे। इरिंगालकुडा' का भरत-मंदिर, जो कि किसी समय जैनमंदिर था, विद्या का एक प्रसिद्ध-केन्द्र था। वैदिक-स्कूल 'शालै' कहलाते थे। आयुर्वेद और जैन ___केरल में आयुर्वेद का बहुत प्रचार है जो कि बलवती प्राचीन-परंपरा का परिणाम है। इस शास्त्र के अध्ययन में अष्टांगहृदय नामक ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके रचयिता वाग्भट्ट बौद्ध थे, ऐसा माना किया जाता है। किंतु इस मत की समीक्षा आवश्यक है। - जैनधर्म में तीर्थंकर की वाणी को बारह अंगों में संकलित किया गया है। उसके बारहवें प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 0073
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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