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है; तभी सभी जन आदरणीय-अभिनंदनीय-वंदनीय होते हैं।
वस्तुस्वरूप की उक्त सहज-व्यवसथा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य कुंदकुंददेव ने 'समयसार प्राभृत' में घोषणा की है कि “बहुत प्रकार के पाखण्डी (मुनि) लिंगों अथवा गृहस्थ-लिंगों को धारण करके मूढजन यह कहते हैं कि 'यह लिंग मोक्षमार्ग है।' परन्तु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है; क्योंकि अरहंतदेव लिंग को छोड़कर अर्थात् लिंग पर से दृष्टि हटाकर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं। मुनियों और गृहस्थों के लिंग (चिह्न) मोक्षमार्ग नहीं हैं, क्योंकि जिनदेव ने दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है।" आचार्यदेव कहते हैं कि गृहस्थों और मुनियों द्वारा ग्रहण किये गये लिंगों को छोड़कर, उनमें से एकत्वबुद्धि तोड़कर मोक्षमार्गरूप दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्वयं को लगाओ।
सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. सन्दर्भ क्रं. 2, 3 आचार्य कुंदकुंद, दंसणपाहुड, गाथा 18। 3. सन्दर्भ क्रं. 1,5,6,7,8, एवं 9 आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, गाथा क्रमश: 1008, 1007,970,
971/72,973 एवं 9651 4. सन्दर्भ क्रं. 10 आचार्य कुंदकुंद, बोधपाहुड, गाथा 491 5. सन्दर्भ क्रं. 11 आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ती, महाधिकार आठ गाथा 669-674 । 6.. सन्दर्भ क्रं. 12, 13, 14 एवं 15 आचार्य कुंदकुंद, सुत्तपाहुड, गाथा क्रमश: 21 एवं 13-15, ... 16,22,24-261 7. सन्दर्भ क्रं. 16 आचार्य वीरनन्दी, आचारशास्त्र, अध्याय 2, श्लोक 891 8. सन्दर्भ क्रं. 17, 18, 19,20,21, 22, 23 एवं 24 आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, गाथा क्रमश: 157
189,195, 177-178,179,180,181 एवं 1821 9. सन्दर्भ क्रं. 25 आचार्य शिवकोटि, भगवती आराधना, (दहली प्रकाशन), गाथा 341 । 10. सन्दर्भ क्रं. 26, 27, 28, 29, 30, 31, 32, 33 एवं 34 आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, गाथा क्रमश:
184-185, 191,192, 193,194,989,994,990 एवं 992 । 11. सन्दर्भ क्रं. 35, 36,37,38, 39,40, 41,42 एवं 43 आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, गाथा क्रमश:
993,998,995,996, 997,990-999, 1000, 196 एवं 108।
नमस्तस्यै सरस्वत्यै वाणीपरक शब्द चयन करते हुए लिखा है
'ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाववाणी सरस्वती।' - (अमरकोश, 1/6/1)
व्याख्या- 'ब्राह्मी' द्वारा लोक में प्रचारित होने से 'ब्राह्मी' भारत में बोली जाने से 'भारती' मुख से उच्चार्यभाषा होने से 'भाषा' शब्दार्थों का निगरण करने से 'गी:' अथवा 'गिरा' उच्चरित होने से 'वाक्' शब्दार्थ के सेवन से 'वाणी' तथा जबान पर से गतिशील 'सरस्वती' कहलाती है।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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