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________________ किन्तु युग के साथ चलना वे आत्म एवं परहित की दृष्टि से श्रेयस्कर समझते थे। अत: जनभाषा को वे कभी न भूले । प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की परम्परा को उन्होंने नतमस्तक होकर अवधारण किया तथा जनसामान्य को लाभान्वित कराने हेतु उन्होंने जनभाषा अथवा देशभाषा का सहारा लिया । यथा-... तिस करि हमारे हू किंचित् सत्यार्थ पदनि का ज्ञान भया है। बहुरि इस निकृष्ट समयविर्षे हम सारिखे मंदबुद्धीनितें भी हीनबुद्धि के धनी घने जन अवलोकिए हैं। तिनकौं तिनि पदनि का अर्थ ज्ञान होने के अर्थि धर्मानुरागी के वशतें देशभाषामय ग्रन्थ करने की हमारे इच्छा भई, ताकरि हम यहु ग्रन्थ बनावें हैं। सो इस विर्षे भी अर्थसहित तिनिहीं पदनि का प्रकाशन हो है। इतना तो विशेष है, जैसे प्राकृत, संस्कृतशास्त्रनिवि प्राकृत-संस्कृत पद लिखिए हैं, तैसैं इहाँ अपभ्रंश लिए वा यथार्थपना को लिए देशभाषारूप पद लिखिए हैं, परन्तु अर्थविर्षे व्यभिचार किछू नाहीं है.... । उनकी टीकाओं की भाषा ऐसे युग में प्रारम्भ होती है, जब प्रारम्भिक हिन्दी-गद्य का नवोन्मेष हो रहा था। यद्यपि छिटपुट-रूप में टोडरमलजी से कुछ ही समय पूर्व के हिन्दीगद्य के रूप मिल जाते हैं; किन्तु उनसे गद्य ही उस समय विचारों के वाहन का मुख्य-साधन था, यह नहीं कहा जा सकता। हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने गद्य की समस्त विधाओं से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य-ग्रन्थ 1800 ई० के बाद का ही उल्लिखित किया है। इससे यह निश्चयपूर्वक माना जा सकता है कि हिन्दी-गद्य के निर्माण एवं रूपस्थिरीकरण में टोडरमलजी का प्रमुख योगदान रहा है। उनकी टीकाओं के प्रवाहपूर्ण गद्यों में वही मनोरमता, सरसता एवं स्वाभाविकता है, जो पर्वतीय निर्मल-स्रोतों में। हिन्दी-गद्य के इतिहास में उनका स्थान निस्सन्देह अग्रगण्य है। समर्थ व्याख्याकार एवं लेखक पण्डितप्रवर के समय मुद्रणालयों का आगमन भारत में नहीं हुआ था, उस समय तक प्राचीन आर्ष-ग्रन्थों का संकलन, अध्ययन, मनन, चिन्तन एवं लेखन सभी सहज-कार्य न थे। यातायात के साधन भी विकसित न थे। इन सभी कठिनाइयों के बावजूद भी पण्डितजी ने अत्यन्त-अल्पाय प्राप्त होने पर भी जो कार्य किये, उन्हें देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार उन्होंने निम्नलिखित ग्रंथों को द्रव्यानुयोग, करणानुयोग एवं चरणानुयोग के प्रमुख-ग्रन्थ (Key Books) मानकर उनकी हिन्दी-टीकायें लिखी— गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार एवं क्षपणासार, त्रिलोकसार, आत्मानुशासन, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय एवं अर्थसंदृष्टि-अधिकार। इनके अतिरिक्त उनकी तीन स्वतन्त्र रचनायें हैं- रहस्यपूर्ण चिट्ठी, मोक्षमार्ग-प्रकाशक एवं गोम्मटसार-पूजा। ___ गोम्मटसारादि की टीकाओं में उन्होंने जो घोर परिश्रम किया है, वह तो वही समझ सकता है, जिसने उसप्रकार का कार्य किया हो। स्वतन्त्र-ग्रन्थ लिखना आसान है, किन्तु अनुवाद, भाष्य या टीकादि लिखना संहज नहीं। सच्चा भाष्य वही है, जिसमें मूलग्रन्थ के 00 40 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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