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________________ के द्योतक होते थे। कहा जाता है कि भगवान् महावीर बाल्यावस्था में जिस 'नन्द्यावत' राजप्रासाद में जन्मे थे, उसकी ध्वजा पर 'सिंह' का चिह्न अंकित था, अत: उनका चिह्न 'सिंह' माना गया। इसीप्रकार देवविमानों की ध्वजाओं पर भी अनेक मांगलिक-चिह्न अंकित होते हैं। __ जिनमंदिर में ध्वज-आरोहण की विशिष्ट प्रक्रिया होती है। इसमें ध्वज के दण्ड का नाम, ध्वज स्थापित करने का स्थान, एवं ऊँचाई आदि का विस्तृत विवरण जैन-ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इसका संक्षिप्त-विवरण निम्नानुसार है ध्वजदण्ड-- मन्दिर के निचले (आसन के) पाषाण से लेकर कलश तक की समग्र ऊँचाई के 1/3 भाग-प्रमाण ध्वजदण्ड को 'उत्तम' माना गया है। यदि इस 1/3 भाग में से समग्र का 1/10 भाग और कम कर दें, तो उसे 'मध्यम' माना जायेगा तथा 1/3 भाग में से 1/5 भाग और कम कर दिया जाये, तो उस ध्वजदण्ड को 'कनिष्ठ' माना जायेगा। ध्वजस्थान– मन्दिर के शिखर की समग्र ऊँचाई के 5/6वें भाग में ईशानकोण में ध्वजदण्ड स्थापित करने का स्थान (छिद्रयुक्त दृढ़-स्तम्भ) बनाया जाता है। ध्वज की ऊँचाई- मंदिर के कलश से ध्वजा ऊँची रहनी चाहिए। 'प्रतिष्ठासार' (5/74-75) के अनुसार कलश से एक हाथ ऊँची ध्वजा आरोग्यवर्धिनी, दो हाथ ऊँची ध्वजा कुलवर्धिनी, चार हाथ ऊँची ध्वजा राज्यवर्धिनी एवं पाँच हाथ ऊँची ध्वजा सुभिक्षकारिणी मानी गयी है। 'प्रासादमण्डन' (4/48) के अनुसार जिनालय कभी भी ध्वजारहित नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर वहाँ असुरों का निवास हो जाता है। इसके अलावा पुर, नगर, परकोटा, राजमहल, बावडी, कूप, तालाब एवं रथ आदि भी ध्वजाओं से मंडित करने का विधान ग्रन्थों में मिलता है। ध्वज-फहराने में दिशा का भी महत्त्व माना गया है। पूर्वदिशा' में ध्वज फहराने से इष्टकार्यसिद्धि, उत्तरदिशा में फहराने पर आरोग्य एवं सम्पत्ति-प्राप्ति, पश्चिम-ईशान-वायव्य में ध्वज फहराने पर वर्षा का आना एवं मंगल होता है, दक्षिण-आग्नेय एवं नैऋत्य में ध्वज फहराने पर शान्ति, दान-पूजादि शुभ कार्य की सम्पत्ति होती है। इसप्रकार ध्वज का व्यापक महत्त्व जैन-परम्परा में माना गया है। _जैनआगमों की मूलभाषा प्राकृत का ध्वज भी दिग्दिगन्त में फहराये, 'प्राकृतविद्या' इसी मंगलभावना के साथ प्रवर्तित है। इस पावन-अनुष्ठान में विश्वभर के समस्त भाषानुरागियों एवं प्राकृत-प्रेमियों का नैष्ठिक-उदार-सहयोग समर्पितभाव से अपेक्षित है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि भगवान महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक वर्ष के सुअवसर पर सभी प्राकृत-प्रेमी इस संकल्प की पूर्ति के लिये सरकार से सहयोग लेंगे और निजीरूप में भी पूर्ण समर्पण के साथ कार्य करेंगे। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 10 11
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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