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________________ करें। इस राजा ने नाविकों से प्राप्त देश की आय को जूनागढ़ के गिरिनार पर्वत पर स्थित अरिष्टनेमि की पूजा के लिये प्रदान किया था। आशा है उपरोक्त तथ्य का संज्ञान लेंगे। दूसरी बात यह कहनी है कि उ०प्र० शिक्षा परिषद् के विषयों में शास्त्रीय भाषाओं के अन्तर्गत 'प्राकृत' का नाम नहीं है, अत: उसको सम्मिलित कराने का प्रयास किया जाये। उसके लिये हाईस्कूल तथा इण्टरमीडियेट स्तर के लिये पाठ्यक्रम बना कर भेजने का प्रयास —आदित्य जैन, लखनऊ (उ०प्र०) ** ० प्राकृतविद्या का जुलाई-सितम्बर अंक मिला। पत्रिका उपयोगी होने के साथ सुंदर भी है। कुछ कहना चाहता हूँ, वैसे तो जैनधर्म से सम्बन्धित डाक-टिकिट जारी ही कम होते हैं; और जो होते हैं उनमें सूचना पत्रिका में जानकारी अधूरी रहती है। दूसरे, सम्बन्धित स्थानों पर विशेष मुहर की, पहले दिन व्यवस्था नहीं हो पाती है। कुन्दकुन्द भारती का केन्द्रिय कार्यालय दिल्ली में होने से यह सभी व्यवस्था सुचारु-रूप से हो सकती है। भगवान महावीर से सम्बन्धित अभी डाक-टिकिट जारी हुआ था। जन्मस्थान पर टिकिट जारी होने के दिन जन्मस्थान पर विशेष मुहर की व्यवस्था होनी चाहिये थी। सूचना-पत्रिका में भी सही जानकारी आनी चाहिये थी। ये प्रथम-दिवस आवरण और सूचना-पत्रिका विदेशों में भी जाती है और पूरे विश्व को पता चलना चाहिये जन्मस्थली आदि और सम्पूर्ण-विवरण के बारे में। और फिर कुंदकुंद भारती की ओर से विशेष-व्यवस्था होनी चाहिये। विशेष-आवरण जारी करने की, विशेष सम्पूर्ण जानकारी के साथ पुस्तिका जारी होने की श्री अरविंदो आश्रम की ओर से व्यवस्था होती है। संस्थाओं से संबंधित जब भी डाक-टिकिट जारी होते हैं, व्यवस्था होती है। और जो व्यक्ति इसप्रकार के कवर, चित्र, सूचना-पत्रिका चाहे व उपलब्ध भी होती है। चन्द्रगुप्त मौर्य को कितनों ने जाना कि ये जैन थे, जैन-मुनि हुए और श्रवणबेल्गोल में समाधिमरण किया। श्रवणबेल्गोल में चन्द्रगुप्त पहाड़ी पर विशेष-मुहर की व्यवस्था होनी चाहिये थी। -साहू शैलेन्द्र कुमार जैन, खुर्जा (उ०प्र०) ** कुलपति का स्वरूप मुनीनां दशसाहस्रं, योऽन्नदानादिपोषणात् । अध्यापयति विप्रर्षिरसौ कुलपति: स्मृत:।। अर्थ :- जो दस हजार मुनियों को अन्नदानादि से पोषित करता हुआ उन्हें शिक्षित करता है, उसे भारतीय परम्परा में 'कुलपति' माना गया है। .. परचिनाऽधमाऽधमा जो दूसरों को अपने धर्म में दीक्षित तथा दूसरों की आत्माओं का उद्धार करते फिरते हैं, वे प्राय: अपनी आत्मा को भूल जाते हैं। - (स्वामी विवेकानन्द) .. 00 104 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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