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अभिमत
प्राकृतविद्या, जुलाई-सितम्बर 2001 का अंक प्राप्त कर हर्ष हुआ। इसमें अध्ययनहेतु महत्त्वपूर्ण शोध-सामग्री प्राप्त हुई, इसमें आपके शोधपूर्ण लेखों का अध्ययन कर विशेष आनन्द की अनुभूति हुई और कुछ नवीन विषयों का भी ज्ञान प्राप्त हुआ । पत्रिका का सम्पादन सुयोग्य रीति से हो रहा है। मंगलकामनाओं के साथ ।
— डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर (म०प्र० ) **
Prakrit Vidya is a standard journal. Each and every issue is worth preserving. This issue carrying the chandragupta Mauray's picture, a reproduction of postal stamp, is remarkable. Your editorial has recorded the importance of this picture. Added to this, you have also written an article on Jainism that existed in South India before the advent of Chandragupta - a very useful and historically significant writing. I appreciate your approach. With well wishes.
— Prof. Hampa Nagarajaiah, Bangalore (Kar.) ** © प्राकृतविद्या, जुलाई-सितम्बर 2001 का अंक मेरे सामने है। मुख-पृष्ठ पर सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य का डाक-टिकट अत्यन्त आकर्षक रहा । 'समयपाहुड बदलने का दुःसाहस पूर्ण उपक्रम' उपक्रम से डॉ० देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री का लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । 'वीर सेवा मन्दिर' से प्रकाशित 'समयपाहुड' में आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव के प्रति तिरस्कार - प्रदर्शन की वृत्ति का जो दो-टूक उत्तर दिया है, वह भ्रमदृष्टि मिटाने में सदैव निमित्त रहेगा। 'प्राकृत ग्रंथों में जिन - साधुओं का निवास और विहारचर्या का स्वरूप' शीर्षक से डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल का लेख अत्यन्त सामयिक है । श्रावकों के लिये मार्गदर्शक है।
डॉ० सुदीप जैन का 'दक्षिण भारत में सम्राट् चन्द्रगुप्त से पूर्व भी जैनधर्म का प्रचारप्रसार था' शीर्षक लेख इतिहास - मंथन द्वारा जैनधर्म के गौरवमय - अतीत का प्रकाशन अत्यन्त सार्थक है। प्रस्तुत अंक जैन - साहित्य की उत्तम धरोहर तो बनी ही है, साथ ही भाषाविदों के लिये भी संग्रहणीय है । ऐसे उत्तम सम्पादन हेतु साधुवाद |
—प्रकाशचन्द जैन ज्योतिर्विद, मैनपुरी ( म०प्र० ) **
प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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