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________________ समय से जिज्ञासुओं की यह माँग थी कि जैन-सिद्धांत के विषय में साररूप में प्ररूपण करनेवाले किसी छोटे संस्करण का निर्माण किया जाये। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी स्वनामधन्य मनीषी सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने पर्याप्त श्रमपूर्वक इस कृति का निर्माण किया था, और भारतीय ज्ञानपीठ ने इसका प्रथम प्रकाशन कराया था। किन्तु इसका प्रथम संस्करण समाप्त हो जाने के बाद लम्बे समय से इसकी आवश्यकता का अनुभव इस विषय के जिज्ञासु कर रहे थे। दीर्घ अंतराल के बाद अब इसका द्वितीय संस्करण सुन्दर सांज-सज्जा के साथ प्रकाशित हुआ है, जोकि जिज्ञासुओं और विद्वानों के लिये जैनसिद्धान्त-विषयक सामग्री को प्रस्तुत कर उन्हें संतुष्टि प्रदान कर सकेगा। इस अति-उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण कृति के द्वितीय संस्करण के प्रकाशन के लिये भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंधकगण हार्दिक अभिनन्दन और वर्धापन के पात्र हैं। -सम्पादक पुस्तक का नाम : न्यायविनिश्चयविवरण (प्रथम एवं द्वितीय भाग) लेखक : वादिराजसूरि विरचित सम्पादन : प्रो० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003 संस्करण : द्वितीय, 2000 ई० मूल्य : 200/- प्रति खण्ड, (पक्की जिल्द, लगभग 611+525 पृष्ठ) भारतीय न्यायशास्त्र के क्षेत्र में जैन आचार्यों एवं मनीषियों का योगदान अन्यतम रहा है। तथा विश्वभर के साधक मनीषियों ने इस तथ्य को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। इनमें भी आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंकदेव, आचार्य विद्यानन्दि, आचार्य प्रभाचन्द्र एवं आचार्य वादिराजसूरि की कृतियाँ विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। ___ आचार्य वादिराजसूरि-विरचित 'न्यायविनश्चयविवरण' मूलत: आचार्य भट्टाकलंकदेव द्वारा प्रणीत न्यायविनश्चय' नामक ग्रंथ का व्याख्यापरक ग्रंथ है। यह ग्रंथ मूलत: विलुप्त हो गया था, मात्र इसकी यह टीका ही मिलती थी। मूलग्रंथ के अभाव में टीका के सम्पादन और प्रकाशन का कार्य भी कोई हाथ में नहीं ले रहा था। यद्यपि यह टीका-ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, फिर भी मूलग्रंथ न मिलने से इसके सम्पादन-प्रकाशन का साहस कोई विद्वान् नहीं कर पाया। लम्बे अंतराल के बाद जैन-मनीषा के क्षेत्र एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ, जो अपनी नैसर्गिक-प्रतिभा के आधार पर अल्पायु में ही ऐसे चमत्कार कर गया; कि अन्य सब मनीषी उनके कार्यों को देखकर दाँतों तले अंगुली दबाकर रह गये। वे विशिष्ट मनीषी थे— डॉ० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य। अपार कष्टों और विपन्नताओं को सहकर डॉ० महेन्द्र कुमार जी ने ज्ञानार्जन के उपरांत अपनी न्यायाचार्य की उपाधि को उस समय महिमामण्डित कर दिया, जब उन्होंने प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 1099
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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