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न्यायशास्त्र को प्रामाणिकता की कसौटी माना जाता है, तथा प्रातिभज्ञान की परख भी न्याय के क्षेत्र में ही दार्शनिक मनीषी परस्पर किया करते हैं। दर्शन के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की प्रभावोत्पादकता का निर्णय भी न्यायशास्त्र के अवलम्बन के बिना संभव नहीं होता है। यद्यपि धार्मिक मान्यतायें श्रद्धा पर आधारित होती हैं, फिर भी श्रद्धा जगाने के लिये भी न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। ___ जैनदर्शन में प्राचीन आचार्यों के द्वारा रचित न्यायशास्त्र के अनेकों गंभीर और विशालपरिमाणवाले ग्रंथ उपलब्ध हैं। किन्तु वे सभी संस्कृतभाषा में ही प्रमुखत: निबद्ध हैं, उनकी व्याख्या एवं अनुवाद आदि विभिन्न विद्वानों ने किये हैं; किन्तु मूलानुगामी होने के कारण उनकी दुरूहता आम जनता के लिये बनी ही रही। प्रारंभिक रूप में जैनन्याय का अध्ययन करनेवाले जिज्ञासुओं के लिये भी उनके विषयों में आसानी से प्रवेश नहीं हो पाता था। तथा न्यायदीपिका' जैसे कुछ सरलग्रंथ थे भी, तो वह सर्वांगीण प्ररूपण नहीं करते थे, अत: अनेकों विषय अछूते रह जाते थे। जैनन्याय के जिज्ञासुओं के बीच एक ऐसे ग्रंथ की आवश्यकता गहराई से महसूस की जा रही थी, जो सरल हिन्दीभाषा में जैनन्याय के समग्रतत्त्व को संतुलित शब्दों में प्ररूपित कर सके। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये मनीषी-साधक विद्वद्वरेण्य सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने जैनन्याय' नामक कृति की रचना की थी, जिसका प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ' जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने कराया था। किन्तु इसकी प्रतियाँ समाप्त हो जाने के बाद दीर्घकाल से इसकी आवश्यकता का अनुभव इस विषय के जिज्ञासु कर रहे थे। अनेकोबार अनुरोध के बाद भी इसका द्वितीय संस्करण लम्बे समय तक प्रकाशित नहीं हो सका, किन्तु अब इसका द्वितीय संस्करण सुन्दर साज-सज्जा के साथ प्रकाशित हुआ है, जोकि जिज्ञासुओं और विद्वानों के लिये जैनन्याय-विषयक सामग्री को प्रस्तुत कर उन्हें तृप्ति प्रदान कर सकेगा।
इस अति-उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन के लिये 'भारतीय ज्ञानपीठ' के प्रबंधकगण हार्दिक अभिनन्दन और वर्धापन के पात्र हैं।
--सम्पादक
पुस्तक का नाम : जैन सिद्धान्त लेखक
: सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रकाशक
: भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003 संस्करण : द्वितीय, 2001 ई० मूल्य : 80 रुपये (पक्की जिल्द, लगभग 232 पृष्ठ)
जैनदर्शन के सिद्धान्तों का महत्त्व और उनकी गहराई सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने मुक्तकंठ से स्वीकार की है। किन्तु इसके प्ररूपक-ग्रंथ संस्कृत और प्राकृतभाषाओं में निबद्ध होने के कारण सामान्य-लोगों के लिये उपयोगी नहीं हो पाते थे। अत: एक लम्बे
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001