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________________ पाँच इन्द्रिय-निग्रह चार कषायों का त्याग : 11. चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह 11. क्रोधत्याग 12. श्रात्रतेन्द्रिय-निग्रह 12. मानत्याग 13. घ्राणेन्द्रिय-निग्रह 13. मायात्याग 14. जिह्वा दन्द्रिय-निग्रह 14. लोभत्याग 15.स्पशेन्द्रिय-निग्रह षडावश्यक* : अन्य गुण 16. सामायिक 15. भावसत्य (आंतरिक पवित्रता). 17. चतुर्विंशतिस्तव 16. करणसत्य (क्रिया/उपाधि की पवित्रता) 18. वंदना 17. योगसत्य (मन, वचन, काय का सम्यक प्रवर्तन) 19.प्रतिक्रमण 18. क्षमा 20. प्रत्याख्यान 19.विरागता 21. कायोत्सर्ग सात अन्य मूलगुण :22. लोच (केशलोंच) 20. मन-समाधारणता (संकोचन) 23. आचेलक्य 21. वचन-समाधारणता (संकोचन) 24. अस्नान 22. काय-समाधारणता (संकोचन) 25. क्षितिशयन 23. ज्ञान-सम्पन्नता 26. अदन्तघर्षण 24. दर्शन-सम्पन्नता 27. स्थितिभोजन 25. चारित्र-सम्पन्नता 28. एक भक्त 26. वेदना-अधिसहन 27. मरणान्तिक-अधिसहन श्रमणाचार का प्रारम्भ उपर्युक्त मूलगुणों से होता है। जिस क्षण से श्रमणधर्म स्वीकार किया जाता है, उसी क्षण से सभी प्रकार के सावधक्रियारूपों का त्रिविधयोग व त्रिकरण की विशुद्धि द्वारा सदा के लिये त्याग किया जाता है। पंचाध्यायी' में भी कहा है- वृक्षमूल के समान मुनि के इन मूलगुणों में न तो कभी न्यूनता होगी और न ही अधिकता। इनसे ही मुनिधर्म सिद्ध हो सकेगा।" जो मुनि मूलगुणों को छोड़कर बाह्ययोग करता है, ऐसे साधु के सभी योग निरर्थक हो जाते हैं। इसीलिये कहा है कि मूलगुणों से विहीन साधु उत्तरगुणों के द्वारा कर्मक्षय नहीं कर सकता। केवल उत्तरगुणों के परिपालन में प्रयत्नशील एवं पूजा-प्रतिष्ठा आदि की निरन्तर इच्छा करनेवाले श्रमण का प्रयत्न मूलघातक होता है।" 'समवायांगसूत्र' एवं 'मूलाचार' में निर्दिष्ट उक्त मूलगुणों के अतिरिक्त उत्तराध्ययनसूत्र 1088 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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