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________________ मूलगुण ___ 'मूल' और 'गुण' इन शब्दों के मेल से बना है— मूलगुण। इसमें 'मूल' शब्द का अर्थ है— मुख्य अथवा प्रधान । तथा 'गुण' शब्द का अर्थ है- धर्म, स्वभाव, इन्द्रियजन्य स्वभाव, लक्षण, विशेषता, श्रेष्ठता, उपयोग, फल, शुभपरिणाम, धागा आदि।' किन्तु यहाँ पर धर्म धर्म-स्वभाव या लक्षण अर्थ ही अभिधेय है। अत: श्रमणों के मुख्य-धर्म या स्वभाव को ही 'मूलगुण' कहा जाता है। ये गुण साधु को अनिवार्यरूप से पालन करना होता है। मुमुक्षु को दीक्षा के समय जिन महाव्रतों आदि गुणों को अखण्डरूप में धारण कर उनका सर्वदेश पालन करना अनिवार्य कहा गया है, वे मूलगुण हैं। श्रमणधर्म कषायों का उपशमन, राग-द्वेष की निवृत्ति तथा शान्ति और समतारूप है। श्रमण-वेष में प्रतिष्ठित जीव जहाँ अपनी बाह्य विशुद्धि करता है, वहीं आत्मकल्याण के निमित्त, कषायों का उपशमन, राग-द्वेष की निवृत्ति, शांति आदि के द्वारा अपना आध्यात्मिक-समुत्कर्ष भी करता है। जिसके उल्लेख जैनागमों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। श्रमण के दो चिह्न (लिंग) - अंतरंग और बहिरंग, कहे गये हैं। अंतरंग अर्थात् मूर्छा और आरम्भरहित, उपयोग व योगयुक्त तथा परापेक्षा-रहित, ऐसा श्रामण्य का लिंग तथा यथाजात-बालक के समान शुद्ध, आकिंचन्य एवं निर्विकाररूप बहिरंग-लिंग के धारक श्रमण की परिपूर्णता तभी है, जब वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र में आरूढ़ एकाग्रचित्त हो प्रयत्नपूर्वक मूलगुणों का पालन करता है। मुनि जिन मूलगुणों को धारणकर श्रमणधर्म में दीक्षित होता है, उनकी संख्या 27 व 28 दी गई है। अर्धमागधी में इनकी संख्या 27 निर्दिष्ट है, जबकि शौरसेनी आगमों में मूलगुणों की 28 संख्या का उल्लेख किया गया है। मूलगुणों के नामों की सूची नीचे दी जा रही है :मूलाचार में वर्णित समवायांगसूत्र में वर्णित पंचमहाव्रत: पाँच महाव्रत 1. अहिंसा 1. प्राणातिपात-विरमण 2. सत्य 2. मृषावाद-विरमण, 3. अचौर्य 3. अदत्तादान-विरमण, 4. ब्रह्मचर्य 4. मैथुन-विरमण, 5. अपरिग्रह 5. परिग्रह-विरमण, पाँच समितियाँ पाँच इन्द्रिय-निग्रह : 6. ईर्यासमिति 6. श्रोतेन्द्रिय-निग्रह 7. भाषासमिति 7. चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह 8. एषणासमिति 8. घाणेन्द्रिय-निग्रह 9. निक्षेपादान समिति 9. रसनेन्द्रिय-निग्रह 10. प्रतिष्ठापना-समिति 10. स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 0087
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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