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________________ जैन आगम - साहित्य में प्रतिपादित श्रमणों के मूलगुण - डॉ० जिनेन्द्र जैन --- भारतीय-संस्कृति में ब्राह्मण-संस्कृति व श्रमण-संस्कृति - इन दोनों की धारायें प्रवाहित हो रही हैं। इसीलिये ब्राह्मण-संस्कृति को प्रतिष्ठित करते हुए कहा गया है कि “अग्निहोत्रादिअनुष्ठान करनेवाला गृहस्थ ही श्रेष्ठ है । " " महाभारत में भी ज्येष्ठाश्रमो गृही' कहकर उक्त कथन का समर्थन किया गया है। जबकि श्रमण - संस्कृति ने श्रमण - जीवन को ही अधिक महत्त्व दिया। यही कारण है कि जैन आगमों में चाहे प्रथमानुयोग का प्रसंग हो, चाहे करणानुयोग का हो या फिर द्रव्यानुयोग का, उनमें किसी न किसी रूप में चरणानुयोग के सूत्र बीजरूप में बिखरे हुए प्राप्त हो जाते हैं । 1 श्रमण-संस्कृति ने आध्यात्मिक विकास पर अत्यधिक बल दिया है । श्रमण का आध्यात्मिक विकास-क्रम (गुणस्थान की अपेक्षा से) में छठा स्थान है। वह यदि निरन्तर आचारधर्म को परिष्कृत करते हुए ऊर्ध्वमुखी - विकास करता रहे, तो अन्त में चौदहवें-गुणस्थान की भव्यभूमिका में पहुँच जाता है और फिर सदा-सर्वदा के लिए सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाता है जैन-श्रमणों की प्रव्रज्या का मूल उद्देश्य कहा गया है - विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना, परभाव से हटकर स्वभाव में आना, प्रदर्शन के स्थान पर आत्मदर्शन करना आदि । और इन उद्देश्यों को प्रकट करनेवाले अनेक सूत्र जैसे— “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणई', संपिक्खए अप्पगमप्पएणं आदि जैन आगमों में भरे पड़े हैं । आचार की शुद्धता के बिना मनुष्य न तो दुःखों से ही मुक्त हो सकता और न ही शाश्वत-सुख प्राप्त कर सकता है । प्रत्येक प्राणी की आत्मा में, जो अप्रकटरूप में परमात्मा है, अनंतशक्ति विद्यमान है, जिसको प्राप्त करने के लिए 'आचार-मार्ग' का अनुसरण अनिवार्य है। जैन धर्म में आचारमार्ग के दो रूप प्रतिपादित हैं। प्रथम वह रूप, जिसमें व्यक्ति व्रतादि आचारधर्म का देश, काल व शक्ति आदि के अनुसार एकदेश- - पालन करता है। जैनधर्म में उसे ‘श्रावकाचार' कहा जाता है । और द्वितीय वह रूप जिसे साक्षात् मुक्ति का कारण कहा जाता है । इसमें महाव्रतादिरूप आचारधर्म का सर्वदेश व अखण्ड - पालन करना अनिवार्य है, ऐसा वह आचारधर्म मुनि- - आचार या 'श्रमणाचार' कहा जाता है । अत: यहाँ पर मुनियों-श्रमणों के मूलगुण व उत्तरगुण-स्वरूप आचारधर्म के आंशिक आगमिक 1 प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2001 - 85
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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