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________________ 00 74 श्री सम्मेदशिखर अष्टक — विद्यावारिधि डॉo महेन्द्र सागर प्रचंडिया शिखरों के समवेत से, बना 'शिखर सम्मेद ' । सिद्धक्षेत्र बन शोभता, छोड़ सभी भय - भेद ।। 1।। शिखर-शिखर पर राजते, चरण-चिह्न अभिराम । चरण-चरण से फैलती, शील - सुगंध तमाम ।। 2 ।। बीस - विभू की मुक्ति से, बना मुक्ति का धाम । आकर जीते सभी ने, कर्मों के संग्राम ।। 3 ।। गौतम-स्वामी मध्य में, समता लिये अनूप । आरोही लखते यहाँ, अपना आत्म स्वरूप ।। 4 ।। कुंथनाथ की टोंक से, ज्ञान और श्रद्धान से भासे जग निस्सार। खुलते अन्तर्द्वार ।। 5 ।। पार्श्वनाथ की टोंक पर करें भक्त विश्राम | अन्तर्मन से पूजते, बनते बिगड़े काम ।। 6 ।। - मृत्यु - ‍ [- महोत्सव के लिये आते संत अनेक । धन्य-धन्य जीवन करें, जागे विमल- विवेक ।। 7 ।। करें वंदना भाव से, एक बार जो कोय । ताहि नरक - पशु गति नहीं, ऐसी परिणति होय ।। 8।। प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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