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जैनदर्शन में आकाश को अनन्त माना गया है। उसमें दो भाग हैं- (1) लोकाकाश, जहाँ गति (हलन चलन) संभव है और (2) अलोकाकाश, जहाँ गति नहीं है। सभी द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं और अलोकाकाश में द्रव्यों की सत्ता नहीं है। ऐरिस्टोटल (Aristotll) भी प्राय: आकाश के सम्बन्ध में यही विचार रखता है। उसने आकाश के दो भाग किये हैं(i) चन्द्रमा के नीचे तक के आकाश में जीवन और पदार्थ हैं, तथा (ii) चन्द्रमा के ऊपर के आकाश में जीवन और पदार्थ नहीं हैं। आकाश के सम्बन्ध में जैनदर्शन और ग्रीकदर्शन की विचारधारा में समान-तत्त्व खोजे जा सकते हैं। आकाश-द्रव्य के विषय में दोनों दर्शनों में दार्शनिकों के बीच मतभेद चलता रहा है।'
धर्म और अधर्मद्रव्य के सम्बन्ध में जैनदर्शन ने जो अपने विचार दिये हैं, वे मौलिक हैं। धर्मद्रव्य पदार्थों की गति और अधर्मद्रव्य पदार्थों की स्थिति में सहायक है। इसके उदाहरण भी जैन-ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। यह विचार वैज्ञानिक-दृष्टि से भी स्वीकार किया गया है। __ अजीव-द्रव्यों को जैनदर्शन में 'पुद्गल' कहा है। इसमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श -ये चार गुण स्वीकार किये गये हैं। पुद्गल में अणु, परमाणु और स्कन्ध सम्मिलित हैं। इन्द्रियाँ, मन, शारीरिक अवयव तथा वे सभी वस्तुयें, जिन्हें हम अनुभव करते हैं, पुद्गल में सम्मिलित हैं। पुद्गल को इसी कारण से अनन्त भी माना गया है। इस पुद्गल के प्रमुख भेद हैं— (1) अणु, (2) स्कन्ध । जो कुछ भी दृश्य-जगत् में है, वह स्कन्ध' के रूप में जाना जाता है, और जो सूक्ष्मतम द्रव्य की इकाई है, वह 'अणु' के रूप में स्वीकार है। इस विषय में प्राचीन ग्रीक-विचारक ल्यूसीपस (Leucippus) और डेमोक्रिटस (Democritus) के विचार जैनदर्शन से समानता रखते हैं। डेमोक्रिटस खाली (रिक्त) आकाश और अनन्तभ्रमणशील अणुओं को स्वीकार करता है। केवल उनके स्वरूप और आकार तथा उनके स्कन्ध बनने और अलग होने के विचार में वह मतभेद रखता है। वह मानता है कि वर्ण, रस, और तापमान अणु के गौण-गुण हैं, मुख्य-गुण नहीं हैं। ग्रीक दार्शनिक ऐपीक्यूरस (Epicurus) ने जो अणु के वजन और उसकी अधोगति के सम्बन्ध में अपने विचार रखे हैं, वे जैनधर्म के विचार से मेल खाते हैं।" जीवतत्त्व का विकास
जैनदर्शन में जीवतत्त्व के सम्बन्ध में विस्तार से चिन्तन किया गया है और उसके स्वरूप एवं विभिन्न गुणों पर सूक्ष्म-दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। डॉ० नाकामुरा मानते हैं कि जैनदर्शन में स्वीकृत आत्मा का स्वरूप और डेमोक्रिटस द्वारा प्रतिपादित आत्मा के सिद्धान्त में स्पष्ट-अन्तर है। डेमोक्रिटस मानते हैं कि आत्मा अणुओं से बनी हैं और उनकी गति से आत्मा में जीवन संचालित होता है। यहाँ चेतन-अणुओं के स्कन्ध को आत्मद्रव्य कहा गया है, जबकि जैनदर्शन आत्मा के स्वरूप में ज्ञान और चैतन्य की सत्ता स्वीकार करते
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
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