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भारतीय संस्कृति में गाय
___-डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल
विगत अंक के सम्पादकीय लेख में 'गौ' शब्द की विवेचना के सम्बन्ध में सुधी-पाठकों के बहुत पत्र आये थे। बाद में अध्ययनक्रम में गाय विषयक यह आलेख हाथ लगा, जो कि स्वनामधन्य विद्वद्वरेण्य डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल जी की पवित्र लेखनी से प्रसूत है। डॉ० अग्रवाल जी भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अतिविशिष्ट मनीषी थे। उनका यह आलेख सन् 1979 में पृथिवी-प्रकाशन, वाराणसी के द्वारा प्रकाशित कृति 'भारतीय धर्म-मीमांसा' से उद्धृत है। 'प्राकृतविद्या' के जिज्ञासु-पाठकों के लिए यह आलेख अवश्य रुचिकर लगेगा —इसी आशा के साथ यहाँ प्रस्तुत है।
–सम्पादक
भारतीय-संस्कृति में गौ-तत्त्व की बड़ी महिमा है। जिस गौ-पशु को हम लोक में प्रत्यक्ष देखते हैं, वह दूध देनेवाले प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है। दुग्ध अमृत-भोजन है। वह जीवनभर मनुष्य की देह को सींचता है। भारतीय जलवायु में गोरस-युक्त भोजन ही मानव-शरीर का सर्वोत्तम पोषक है। वह स्थूल-अन्न के साथ मिलकर भोजन में पोषक-तत्त्वों की संपूर्णता प्रदान करता है। पाँच-सहस्र-वर्षों के राष्ट्रीय-अनुभव का निचोड़ यही है कि घी, दूध, दही, मट्ठा भारत की शीतोष्ण-जलवायु में आयुष्य, बल, बुद्धि और ओज की वृद्धि के लिए साक्षात्अमृत है। लोकोक्ति तो यहाँ तक कहती हैं कि तक्र में जो गुण है, वह इन्द्र के राजसी-भोजन में भी नहीं है।' (तक्रं शक्रस्य दुर्लभम्) । विदुर का कथन है कि जिसके पास गौ है, उसने भोजन में उत्तम-रस का आनन्द पा लिया। – (समाशा गोमता जिता, उद्योगपर्व 34-45) __ स्थूल-दृष्टि से कृषि के लिये भी गौ का अनन्त-उपकार है। एक ओर गौ के जाए बछड़े हल खींचकर खेतों को कृषि के लिये तैयार करते हैं, दूसरी ओर गौ का गोबर भूमि की उर्वरा-शक्ति को बढ़ाने के लिये श्रेष्ठ-खाद है, जो सड़-फूलकर रश्मियों के प्रकाश और जीवाणुओं से उसे भर देती है। कृषि' यहाँ का राष्ट्रीय-धन्धा है। कृषि से ही भारत में जीवन की सत्ता है। जैसा कहा है
"राज्ञां सत्त्वे ह्यसत्त्वे वा, विशेषो नोपलक्ष्यते।
कृषीबलविनाशे तु, जायते जगतो विपत् ।।" अर्थात् राजाओं के उलट-फेर से कोई विशेष-घटना नहीं घटती। पर यदि किसान का
प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
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