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उत्पन्न होता है। खण्डन-मण्डन द्वारा दिग्विजयी बनने का प्रयास इस देश में कम प्रचलित नहीं था, परंतु इससे कोई विशेष-लाभ कभी नहीं हुआ। प्रतिद्वन्द्वी-खेमे और भी आग्रह के साथ अपनी-अपनी टेक पर अड़ जाते हैं। इस देश के विसंगति-बहुल समाज को ठीक रास्ते पर ले आने के लिए जिन महात्माओं ने गहराई में देखने का प्रयास किया है, उन्होंने दो बातों पर सविशेष-बल दिया है। मन, वचन, कर्म पर संयम
पहली बात तो यह है कि केवल वाणी द्वारा उपदेश या कथनी कभी उचित-लक्ष्य तक नहीं ले जाती। उसके लिए आवश्यक है कि वाणी द्वारा कुछ भी कहने के पहले वक्ता का चरित्र-शुद्ध हो। उसका मन निर्मल होना चाहिए, आचरण पवित्र होना चाहिए। जिसने मन, वचन और कर्म को संयत रखना नहीं सीखा, इनमें परस्पर-अविरुद्ध रहने की साधना नहीं की, वह जो कुछ भी कहेगा, अप्रभावी होगा। चरित्र-बल नेतृत्व के लिए आवश्यक
हमारे पूर्वजों ने मन, वचन-कर्म पर संयम रखने को एक शब्द में 'तप' कहा है। तप से ही मनुष्य संयतेन्द्रिय या जितेन्द्रिय होता है, तप से ही वह वशी' होती है, तप से ही वह कुछ कहने की योग्यता प्राप्त करता है। विभिन्न प्रकार के संस्कारों और विश्वासों के लोग तर्क से या वाग्मिता से नहीं, बल्कि शुद्ध, पवित्र, संयत-चरित्र से प्रभावित होते हैं। युगों से यह बात हमारे देश में बद्धमूल हो गई है। इस देश के नेतृत्व का अधिकारी एक मात्र वही हो सकती है, जिसमें चारित्र का महान् गुण हो । दुर्भाग्यवश वर्तमानकाल में इस ओर कम ध्यान दिया जा रहा है। जिसमें चरित्रबल नहीं, वह देश का नेतृत्व नहीं कर सकता। ___ भगवान् महावीर जैसा चरित्र-सम्पन्न, जितेन्द्रिय, आत्मवशी महात्मा मिलना मुश्किल है। सारा जीवन उन्होंने आत्म-संयम और तपस्या में बिताया। उनके समान दृढ़-संकल्प के आत्मजयी-महात्मा बहुत थोड़े हुए हैं। उनका मन, वचन और कर्म एक दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य में थे। इस देश का नेता उन्हीं जैसा तपोमय महात्मा ही हो सकता था। हमारे सौभाग्य से इस देश में जितेन्द्रिय-महात्माओं की परम्परा बहुत विशाल रही है। इस देश में तपस्वियों की संख्या सदा बहुत रही है। केवल चरित्र-बल ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ और कुछ भी आवश्यक है। अहिंसा, अद्रोह और मैत्री ___ यह और कुछ भी हमारे मनीषियों ने खोज निकाला था। वह था अहिंसा, अद्रोह और मैत्री। अहिंसा परमधर्म है, वह सनातन धर्म है, वह एकमात्र धर्म है, आदि बातें इस देश में सदा मान्य रही हैं। मन से, वचन से, कर्म से अहिंसा का पालन कठिन-साधना है। सिद्धान्तरूप से प्राय: सभी ने इसे स्वीकार किया है; पर आचरण में इसे सही-सही उतार
प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
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