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________________ भारतीय संस्कृति को तीर्थंकर ऋषभदेव की देन __-पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय संस्कृत-साहित्य का इतिहास तथा विविध-ग्रन्थों के लेखनकार्य के समय मुझे जैनधर्म, दर्शन, साहित्य और इसके इतिहास के गहन-अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन सबके अध्ययन से जैनधर्म के प्रति काफी लगाव रहा और प्रभावित रहा हूँ। मेरे द्वारा लिखित अन्य ग्रन्थों की तरह जैनधर्म, दर्शन और साहित्य के इतिहास तथा विवेचन से संबंधित स्वतंत्र ग्रन्थ लिखने की प्रबल भावना रही, मन में इसकी पूरी रूपरेखा भी रही; किन्तु अन्यान्यलेखन में व्यस्तता के चलते यह इच्छा अधूरी ही रही। अब इस पश्चिमवय, वह भी 98-99 वर्ष की इस उम्र में वैसा लेखन सम्भव नहीं हो पा रहा है। फिर भी जैनधर्म, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं भरत और भारतवर्ष नामकरण आदि के विषय में जनमानस को परिचित करने की दृष्टि से यह लघु-निबंध प्रस्तुत कर रहा हूँ। जैन-परम्परा के विशाल-वाङ्मय तथा इसके प्रमुख आचार्यों में आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त, भूतबलि, आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, हेमचन्द्र आदि आचार्यों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया। साथ ही इसके अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अहिंसा, संयम, अपरिग्रह और सर्वोदय के सिद्धान्तों और श्रावक तथा श्रमण की आचार-पद्धति का मैं सदा से प्रशंसक रहा हूँ। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से मात्र यहाँ जैनधर्म और ऋषभदेव एवं इनकी परम्परा आदि के विषय में कुछ कहना उपयुक्त होगा। वस्तुत: भारतवर्ष के इतिहास में वैदिक और श्रमण —ये दो धार्मिक परम्परायें प्राचीनकाल से ही सर्वतोभावेन मान्य रही हैं । श्रमण-परम्परा में यद्यपि जैन और बौद्ध - ये दो धर्म मान लिये गये, किन्तु जैनधर्म काफी प्राचीन है। वैदिक-साहित्य में भी जैनधर्म और तीर्थंकरों से संबंधित अनेक-उल्लेख मिलते हैं। अब तो अनेक साहित्यिक, पुरातात्त्विक, भाषावैज्ञानिक एवं शिलालेखी-साक्ष्यों ने इसे एक स्वतंत्र, मौलिक और प्राचीनधर्म सिद्ध कर दिया है। महात्मा बुद्ध ने स्वयं जैनधर्म की पूर्वभाविता को स्वीकार किया है। इस धर्म के लिए जैन' संज्ञा तो बहुत बाद की है। इसके पहले इसके प्राचीन नाम आहेत, श्रमण (समण), निगण्ठ इत्यादि के उल्लेख वैदिक तथा इतर-प्राचीन-भारतीय-वाङ्मय में मिलते हैं। निगण्ठ' शब्द निर्ग्रन्थ' का प्राकृत-पालिभाषा का रूपान्तर-मात्र है। ‘पालि 10 32 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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