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________________ क्षय सत्य निवृत्ति - निर्भेदन वृत्ति: निवृत्ति: – (पृ०184) भेदरहित वृत्ति निवृत्ति है। निवृत्तिावृत्ति: – (पृ०185) व्यावृत्ति का नाम भी निवृत्ति है। - उपशम, क्षपण -(पृ०219) विनाश । इन्द्र – इन्दनादिन्द्र: आत्मा – (पृ0233) इन्द्रन, ऐश्वर्य, इन्द्र, आत्मा। ___ - फल, योग 'च' शब्दश्च त्रय एव योगा: सन्ति नान्ये इति योग-संख्या नियमप्रतिपादन-फल: समुच्चार्या वा। -(पृ०280) __ - सत्यमवितथममोघमित्यनर्थान्तरम् – (पृ०282) सत्य, अवितथ और अमोघ ये एकार्थवाची शब्द हैं। पुरु - पुरुमहमुदारुरालं एयट्ठो – (पृ०293) पुरु, महत्त्, उदार और उराल -ये एकार्थवाचक शब्द हैं । समुच्चय 'अपि' शब्द: समुच्चयार्थे दृष्टव्यः - (पृ०313) पुरुष – पुरु, पुरुष। पुरुगुण-भोगे सेदे करेदि लोगम्हि पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तम्पे य ____ जम्हा तम्हा मो वण्णिदो पुरिसा।। -(पृ०343) 'छक्खंडागम' की प्रथम पुस्तक की व्याख्या में शब्द-समूह, शब्द-विश्लेषण, व्युत्पत्ति, स्वरूप, भेद आदि का विश्लेषण तो है ही, इस प्रथम पुस्तक में विविध प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री भी पर्याप्तरूप में विद्यमान है। व्याख्याकार धरसेन ने प्राकृत-शिक्षण की दिशा में जो पूर्व-प्रयास किया, उससे ऐसा लगता है कि वे प्राकृत की प्रतिष्ठा के साथ-साथ प्राकृत को जन-जन तक पहुँचाना चाहते थे, तभी तो सूत्र के मूल को खोलने के लिए वे प्राकृत के मूल में अपने आपको स्थापित किए हुए संस्कृत-जगत् को भी चकित करने में समर्थ हुए। उन्हें जो कुछ भी प्रतिपादन करना था, वह तो प्राकृत की गाथाओं आदि के द्वारा कर दिया और विशेष स्पष्टीकरण के लिए प्राकृत की विशालता को विशाल ही बनाए रखा। धरसेन जैसे आचार्यों ने प्राकृत और संस्कृत दोनों विधाओं को जिस रूप में प्रयोग किया, आज उस विधा को पढ़ने की महती आवश्यकता है, उस पर चिन्तन करके इस हिन्दी-जगत् में भी प्राकृत की संजीवनी का आस्वादन कराने की पहल होना विद्वत्-समाज के लिए जितना गौरव प्रदान करेगा, उससे कहीं अधिक साहित्य-अकादमियों के बीच प्राकृत-अकादमी मात्र सम्पादन से ही अपना पिण्ड छुड़ा ले, या पुरस्कृत कर सम्मान भले ही पा ले, पर प्राकृतरचना-धर्मिता भी अन्य-भाषाओं की तरह हो, उसे प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें साहित्य-जगत् में भी पहुँचाया जाए। हमारे पास ऐसे कितने ही पारखी हैं, प्राकृत-विशेषज्ञ हैं, जिनको इसमें ही लगाया जाकर प्राकृत को पूर्व की तरह पहचान-पत्र दिया जा सकता है 'वीराय भगवते चतुरासीतिवसे काये। जालामालिनिये रंनिविठ माझमिके ।।" – (गौरीशंकर ओझा, भा.लि.) ** प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 00 31
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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