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________________ उन्हें अधिक से अधिक सुविधा देकर 'शौरसेनी प्राकृत' के पुरातन-सूत्रों को समझना उतना ही श्रेयस्कर है, जितना ज्ञान दान देना। यह ज्ञान-दान विधिवत् बनाए रखा जा सकता है, क्योंकि समाज के दातार, सामाजिक संस्थायें आदि अब भी क्रियाशील हैं । हमारे चतुर्विधसंघ के सूत्रधार इन सूत्र-ग्रन्थों के समग्र-अध्ययन के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। चातुर्मासिक क्षणों में सूत्र ही सूत्र हों, वे भी ऐसे आचार्यों के जिनके अध्यात्म-जगत् से यह जैन-साहित्य पल्लवित, पुष्पित एवं वट-वृक्ष की तरह विशाल हुआ। ___वट-वृक्ष के रूप में 'धवला' टीका कितने शास्त्रियों ने देखी, कितनों ने उनका विधिवत् अवलोकन किया, कितने के पास उसके प्रकाशित सोलह भाग में से एक-दो भाग भी हैं? गहन-सिद्धान्त की जानकारी चाहिए है, तो आचार्य-संघ को यह पहला काम करना होगा कि इनका स्वाध्याय मुनियों के बीच में, आर्यिकाओं के मध्य में एवं श्रावक-श्राविकाओं के सान्निध्यमात्र में होने से कोई कार्य नहीं चलनेवाला है; अपितु इन सिद्धान्त-ग्रन्थों की ग्रन्थियों को विधि-विधान करानेवाले शास्त्रियों, अध्यापन करानेवाले मनीषियों तक भी पहुँचाना होगा। 'धवला' टीका में समग्र अक्षर-विज्ञान, व्याकरणशास्त्र, गणित, ज्योतिष आदि तो हैं ही, पर इसमें कईप्रकार के कोष भी विद्यमान हैं। 'धवला' पुस्तक एक, खण्ड एक के 'सत्प्ररूपणा' में जो शब्द हैं, उनका धातुपाठ, परिभाषा, अर्थ, सूत्र विवेचन, विश्लेषण, शंका-समाधान आदि से भी महत्त्व हैं। इसके शब्दों में जो अनेकार्थक पर्यायवाची शब्द हैं, उनका विश्लेषण कोषवृद्धि में निश्चित ही परम-सहकारी होगा; क्योंकि एक ही शब्द के अनेक शब्द, शब्द-विज्ञान की बढ़ोत्तरी में सदैव सहायक होते हैं और उससे ही सूत्र-रहस्य, व्याख्याकार का विवेचन, विषय-वर्णन आदि समझा जा सकता है। अर्थ का गाम्भीर्य शब्दविज्ञान के भण्डार से ही प्रस्फुटित होता है और उससे ही जिनशासन की महिमा मंडित होती ___ 'धवला' के प्रारम्भिक मंगलाचरण में विविध-विशेषणों के माध्यम से जिन' शब्द की ही नहीं, अपितु इसके समग्र पद-समूह की व्याख्या की है सिद्धमणंतमणिंदियमणुवममप्पत्थ-सॉक्ख-मणवज्जं । केवलपहोह-णिज्जिय-दुण्णय-तिमिरं जिणं णमह ।। इस आगमसूत्र में प्रारम्भ में सिद्ध' पद है, जो अनेक भावों से पूर्ण हैं। इसे धातु की दृष्टि से 'षिधु' धातु गमनार्थक या 'षिधु' धातु संराधन इन दोनों के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सहौ सुखदाहदौ – सकार से प्रारम्भ किए गए विवेचन से सुख ही सुख अर्थात् आत्मानंद का कारण ही उत्पन्न होता है। 1. अनगार – ऋषि, मुनि, यति और अनगार —ये चार प्राय: एकार्थवाची शब्द हैं। 2. आगम - आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि। -(पृ०33) 00 28 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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