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________________ के आकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि की पूजा की और उनका एक मंदिर भी वहाँ बनवाया था । 14 ईसापूर्व चौथी शताब्दी में तमिलनाडु के दिगम्बर जैन साधु द्वारा 'तोळकाप्पियम्' नामक तमिल व्याकरण-ग्रंथ की रचना का उल्लेख मिलता है । 'मणिमेखलै' एवं 'शिलिप्पदीकारम्' से भी हमें अनेकों ऐसे उल्लेख मिलता हैं, जो ईसापूर्व काल में भी बहुत पहिले से दक्षिणभारत सुदूर समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार एवं प्रभाव सिद्ध करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने अपने निमित्तज्ञान से दक्षिणभारत में केवल सुकाल की जानकारी नहीं ली थी, अपितु उन्हें दक्षिण में जैनधर्म एवं तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार का भी पता था; तभी उन्होंने सुविचारितरूप में विन्ध्य - महागिरि लांघकर दक्षिणभारत में मुनिसंघ के प्रवास का निर्णय लेकर उसे चरितार्थ किया था । तथा इसप्रकार जैनत्व की मूलपरम्परा की रक्षा उन्होंने अपनी बहुज्ञता और दूरदर्शिता से की थी । सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (विशाखाचार्य) का भी इस सम्पूर्ण कार्यविधि में अनन्य योगदान रहा; इसमें भी कोई सन्देह नहीं है । इससे यह तथ्य भी ज्ञापित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने न केवल एक सम्राट् के रूप में, अपितु एक साधक के भी रूप में जैनत्व का संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार उत्तर से दक्षिण भारत तक अबाधरूप से निरन्तर किया था । सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. महापरिणिव्वाणसुत्त, पृष्ठ 260 । 2. भागवत, 12/1/12-13। 3. वायुपुराण, 99/383 । 4. आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, 4/1481। 5. दोहले के अनुरूप तो उस नवजात बालक का नामकरण 'चन्द्रभुक्त' अर्थात् 'चन्द्रमा का आहार करनेवाला' रखा गया था । जैनग्रन्थों में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं । किंतु कालान्तर में वह 'चन्द्रगुप्त' नाम से प्रसिद्ध हुआ । 6. द्रष्टव्य, प्रमुख ऐतिहासिक जैनपुरुष और महिलायें, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ 47-56। 7. चन्द्रगिरि पर्वत - स्थित शिलालेख क्रं. 162। 8. आचार्य हरिषेण (सातवीं शताब्दी), कथाकोश, 38-39। 9. हनुमान प्रसाद पोद्दार, कल्याण मासिक - पत्र 1950, गोरखपुर, पृ० 864 10. Studies in South India Jainism, Part I, Page 33. 11. हरिवंशपुराण, पृष्ठ 487 । 12. वही, सर्ग 53-65, तथा 'दक्षिण का जैन इतिहास', भाग 3, पृष्ठ 78-80। 13. द्रष्टव्य विष्णुपुराण, अध्याय 18, पद्मपुराण, अध्याय 1, मत्स्यपुराण, अध्याय 24। 14. द्रष्टव्य Times of India, 19th March 1935, पेज 9 तथा संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग 3, go 65-66 1 26 प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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