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________________ भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज, धर्म-दर्शन एवं ज्ञान-विज्ञान के विविध-क्षेत्रों में जैन-परम्परा के अनुयायी मनीषियों एवं श्रावक-मनीषियों का अनुपम, महनीय योगदान रहा है। किन्तु उसका व्यवस्थित-विवरण कहीं भी उपलब्ध नहीं होने से इस क्षेत्र में एक बहुत बड़े शून्यत्व का अनुभव होता था। स्वनामधन्य डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन ने प्रस्तुत-कृति के माध्यम से इस रिक्तता की किसी सीमा तक पूर्ति की है तथा अवशिष्टजनों के प्रति उनके योगदान की स्मृति को सुरक्षित बनाने के लिए एक आदर्श प्रस्तुत तो किया ही है, सशक्त प्रेरणा भी दी है। ___ इसमें इतिहास की महत्ता के विषय में जो संक्षिप्त सारगर्भित वचन हैं, वे अपने आप में अनुपम हैं। चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् वर्द्धमान महावीर से लेकर विविध राजवंशों, सामन्तों, श्रेष्ठियों, मनीषियों तथा समाज के विभिन्न-स्तरों के जैन-पुरुषों व महिलाओं के योगदान को चुन-चुनकर संजोने, उनका यथायोग्य रीति से शब्दांकन करने तथा देश के राजनीतिक मानचित्र के अनुसार इन सभी का 19वीं शताब्दी के अन्त तक का विवरण प्रस्तुत करनेवाली इस कृति का प्रकाशन तो पहिले भी हुआ था, किन्तु इसका यह प्रथम पेपरबैक संस्करण 'भारतीय ज्ञानपीठ' जैसी सुप्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था से प्रकाशित हुआ है, यह विशेषत: उल्लेखनीय है। प्रत्येक जैन भाई-बहिन को अपने निजी संकलन में रखकर पढ़ने एवं मनन करने योग्य यह कृति विश्वस्तर पर प्रचारित एवं प्रसारित होनी चाहिए तथा विशेषत: सूचना- प्रौद्योगिकी के इस युग में आधुनिकतम सूचना-प्रसार माध्यमों (इंटरनेट आदि) पर भी इसका भरपूर प्रचार-प्रसार होना चाहिए। (न केवल पुस्तक की सूचना, अपितु पूर्ण-सामग्री का)। इस महनीय प्रकाशन के लिए प्रकाशन-संस्थान तो अभिनंदनीय है ही, ऐसे महान् । मनीषी के इस योगदान को प्रत्येक जैन बंधु एवं विद्वानों को अपने हृदयपटल पर अंकित कर उनके प्रति कृतज्ञ होने का भाव रखना चाहिए। –सम्पादक ** (3) पुस्तक का नाम : प्राकृत एवं जैनागम साहित्य लेखक : डॉ० हरिशंकर पाण्डेय प्रकाशक : श्री लक्ष्मी पब्लिकेशन, कतिरा, आरा संस्करण : प्रथम, 2000 ई० मूल्य : 500/- (पक्की जिल्द, लगभग 295 पृष्ठ) ___ लोकभाषा प्राकृत में यद्यपि बहुआयामी साहित्य उपलब्ध होता है, फिर भी उसमें निहित जैनागम-साहित्य अपनी पूज्यता, भाषागौरव एवं विषयगांभीर्य की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखना है। यद्यपि जैनागम-साहित्य शौरसेनी' एवं 'अर्धमागधी' – इन दो वर्गों में विभाजित है, अपनी प्ररोचना' में विद्वान् लेखक ने इस तथ्य को स्वीकार भी किया है। किन्तु ग्रंथ की विषयवस्तु में मात्र अर्धमागधी आगम-साहित्य के कतिपय बिन्दुओं का ही प्राकृत के 1098 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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