________________
विदेशी विद्वानों ने भी अनेकत्र इसके विषय में विभिन्न विदेशी भाषाओं में बहुत कुछ लिखा है, किन्तु अंग्रेजी में इसके ऊपर कोई समग्र पुस्तक दृष्टिगोचर नहीं होती थी । यह एक अत्यंत हर्ष का विषय है कि प्राच्यभारतीय भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान् प्रो० एच०सी० भयाणी जी ने शारीरिक असमर्थता होते हुये भी एक अत्यंत श्रमसाध्य एवं विद्वज्जनग्राह्य कृति का निर्माण अंग्रेजी भाषा में किया है, ताकि विश्वभर के अधिक से अधिक लोग इस कृति की महनीयता से परिचित हो सकें ।
समस्त विद्वानों एवं शोधार्थियों के लिये तो यह कृति अवश्य पठनीय है ही, जिज्ञासु पाठकों के लिये भी यह पर्याप्त उपयोगी सिद्ध होगी। इस उपयोगी प्रकाशन के लिये प्रो० भयानी एवं प्रकाशक- संस्थान दोनों ही अभिनंदनीय हैं। -सम्पादक **
(3)
पुस्तक का नाम : मूल लेखक
सम्पादक
प्रकाशक
संस्करण
मूल्य
:
:
0096
1.
Ritthanemicariya (Harivamsapurana) Uttarakamda महाकवि स्वयंभूदेव
प्रो० रामसिंह तोमर
प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद
1. प्रथम, 2000 ई०
:
75/- (डिमाई साईज, पेपर बैक, लगभग 120 पृष्ठ)
भारतीय भाषाओं के साहित्य को समृद्ध करने में जैनाचार्यों एवं मनीषियों का सदा से उल्लेखनीय योगदान रहा है । अपभ्रंश के अप्रतिम महाकवि स्वयंभू ने अपनी कालजयी कृतियों के द्वारा एक ऐसे पथ को प्रशस्त किया है, जिस पर चलकर परवर्ती हिन्दी के महाकवि तुलसीदास जैसे अनेकों महाकवियों ने अपने साहित्य को उपजीवित किया है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे विशिष्ट समालोचक विद्वानों ने इस तथ्य को व्यापक अनुसंधान एवं तुलनात्मक अध्ययन द्वारा अनेकत्र प्रमाणित किया है।
इन्हीं महाकवि स्वयंभू की रिट्ठणेमिचरिउ' नामक कृति को अत्यंत वैज्ञानिक रीति से सुसम्पादित कर स्वनामधन्य प्रो० रामसिंह तोमर जी ने प्रकाशनार्थ निर्मित किया, तथा प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद के द्वारा इसका प्रकाशन हुआ यह विद्वानों के बीच पर्याप्त हर्षदायक सूचना है । यद्यपि इस संस्करण में रिट्ठणेमिचरिउ' के मात्र 'उत्तरकाण्ड' का ही मूल सम्पादित संस्करण प्रकाशित हुआ है, तथा इसमें अनुवाद, सम्पादनशैली - दर्शक सम्पादकीय एवं प्रस्तावना का अभाव है; फिर भी प्रो० भयानी के प्राक्कथन से इसके मूलपाठ के सम्पादन की महनीयता प्रमाणित हो जाती है।
समस्त विद्वानों एवं शोधार्थियों के लिये तो यह कृति अवश्य पठनीय है ही, जिज्ञासु पाठकों के लिये भी यह पर्याप्त उपयोगी सिद्ध होगी। इस उपयोगी प्रकाशन के लिये प्रो० रामसिंह तोमर एवं प्रकाशक संस्थान दोनों ही अभिनंदनीय हैं। -सम्पादक **
प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2000