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________________ यह सच है कि इस भाषा एवं साहित्य की उपेक्षा हुई है । और इस उपेक्षा के कारण ही हिन्दी भाषा ( खड़ी बोली ) की उत्पत्ति और उसके साहित्य की विधाओं के स्रोत का प्रश्न दिग्भ्रम में पड़ा हुआ है। प्रत्येक प्रश्न का हल नया प्रश्न बन जाता है। 2 हिन्दी - मुख्यधारा के प्रथम सृष्टा अपभ्रंश के कवियों को विस्मरण करना हमारे लिए बहुत हानिकारक है | विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी व तुलसी – ये उज्जीवक व प्रथम प्रेरक रहे हैं।" हमारे मध्यकालीन कवियों ने अपना नाता सिर्फ संस्कृत के कवियों से जोड़े रखा, जिससे हिन्दी-साहित्य के ऐतिहासिक विकास की यह महत्त्वपूर्ण कड़ी काव्य-परम्परा से टूटकर अलग जा पड़ी। बीच की पाँच सदियों के अपभ्रंश काव्यों का थोड़ा-सा भी अनुशीलन हमें लाभ ही पहुँचायेगा ।" अतः वृहत्तर भारतीय संस्कृति और उसके गतिशील मूल्यों को समग्रतर अध्ययन तभी संभव है; जब संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश तथा सभी लोकभाषाओं के साहित्य का भी अध्ययन हो । 1 भारत में बसनेवाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है । भारज आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है । यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते हैं, तो फिर हम भारत को भी समझने में असमर्थ रहेंगे । और यदि हम भारत को नहीं समझ सके, तो हमारे भाव -विचार और काम सब के सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे, जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो । 1 आर्यों को भारतभूमि का आदि-निवासी और एकाधिकारी मानना या उन्हें ही केवल हिन्दूधर्म तथा हिन्दू-संस्कृति का एकमात्र निर्माता स्वीकार करना कदाचित् उपयुक्त न होगा। संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में जितना भी उत्तराधिकार आज भारत को उपलब्ध है, उसके निर्माण और अभ्युत्थान में आर्येतर जातियों का उतना ही हाथ रहा है, जितना कि आर्य जाति का । सन्दर्भ-सूची : 1. सन्दर्भ सं० 1, 4, 6, 12 डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, 'प्राचीन भारत का इतिहास', पृ०सं० क्रमश: 14, 31, 24, 311 2. सन्दर्भ सं० 2 डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य, 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा', भाग 1, पृ० 31 3. सन्दर्भ सं० 3, 7, 8, 9, 10, 11, 35 रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध याय', पृ०सं० क्रमश: 72, 58, 70, 72, 71, 86 प्रस्तावना 16 4. सन्दर्भ सं० 5, 36 वाचस्पति गैरोला, 'संस्कृत साहित्य का इतिहास', पृ० क्रमश: 26, 271 5. सन्दर्भ सं० 13, 15, 26, 27, 28 डॉ० रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का 090 प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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