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सिन्ध में तथा उपनागर' सिंध के बीच के प्रदेश में पश्चिम राजस्थान और दक्षिण पंजाब में बोली जाती थी।"छठी शताब्दी में अपभ्रंश का स्वर्णकाल प्रारम्भ हुआ, जिसमें उच्च साहित्य की रचना प्रारम्भ हुई। परिनिष्ठित अपभ्रंश भाषा दसवीं शताब्दी तक प्रचलित रही, उसके बाद दसवीं शताब्दी से इस भाषा ने अनेक शाखाओं में विभाजित होकर नवीन नाम धारण किये तथा अनेक स्थानों से बोले जाने वाले अपभ्रंश अनेक प्रकार की भाषाओं में परिवर्तित हो गये। प्रान्तभेद के अनुसार 'नागर' या 'शौरसेनी अपभ्रंश' से हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी और पंजाबी का विकास हुआ। 'मागधी अपभ्रंश' से बंगला, बिहारी, आसामी और उड़िया का तथा 'महाराष्ट्री अपभ्रंश' से 'मराठी' का विकास हुआ। ब्राचड़' से 'सिन्धी भाषा' का जन्म हुआ।
प्रान्तभेद से तो 'नागर' या 'शौरसेनी अपभ्रंश' अनेक भाषाओं में रूपांतरित हुई, किन्तु हिन्दी के विकास में काव्य अथवा रीति के भेद से वह 2 भागों में विभाजित हुई (1) डिंगल (2) पिंगल। 'डिंगल' राजस्थान की साहित्यिक भाषा तथा पिंगल' ब्रज-प्रदेश की साहित्यिक भाषा है।"आगे जाकर हिन्दी-साहित्य का विस्तार अनेक बोलियों में पाया जाता है। इन बोलियों के आधार पर जिसप्रकार के साहित्य की रचना हुई, वे हैं(1) सिद्धयुग का साहित्य, (2) जैन साहित्य, (3) राजस्थानी भाषा का साहित्य, (4) ब्रजभाषा का साहित्य, (5) अवधी का साहित्य, (6) बुंदेलखण्डी साहित्य, (7) मैथिली साहित्य, (8) खड़ी बोली साहित्य ।"
“जब अपभ्रंश में आधुनिक भाषाओं के चिह्न दृष्टिगत हये, तो श्वेताम्बर का साहित्य अधिकतर गुजराती में लिखा गया और दिगम्बर-सम्प्रदाय का साहित्य हिन्दी आदि में।" अत: जहाँ तक हिन्दी भाषा का सम्बन्ध है, यह अपभ्रंश की साक्षात् उत्तराधिकारिणी है।" ____ इसप्रकार प्राकृतस्रोत वैदिककाल से लेकर अप्रतिहतरूप से प्रवाहित होता आ रहा है। संस्कृत को नियम और अनुशासनों के घेरे में इतना आबद्ध कर दिया गया कि जिससे उस भाषा में आवर्त व विवर्त की लहरें उत्पन्न न हो सकी। यही कारण है कि प्राकृत और संस्कृत दोनों के एक छान्दस् स्रोत से प्रवाहित होने पर भी एक समृद्ध यौवना' बनी रही और दूसरी 'कुमारी युवती'। अपभ्रंश भी बांझ' नहीं है। उसने भी हिन्दी बंगला, गुजराती एवं मराठी, पंजाबी, राजस्थानी आदि भाषा-सन्तानों को जन्म दिया है। - इसमें सन्देह नहीं कि प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य का विपुल भण्डार है। यह श्रेय भी जैन समाज को है, जिसने संस्कृत के साथ प्राकृत अपभ्रंश और प्रान्तीय भाषाओं के सृजन को न केवल प्रेरणा देकर महत्त्व प्रदान किया, प्रत्युत उसे सुरक्षित भी रखा; किन्तु किन्हीं कारणों से वे वृहत्तर भारतीय भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में उसका वस्तुनिष्ठ साम्प्रदायिक साहित्य नहीं, बल्कि देश की मुख्यधारा से जुड़ा हुआ साहित्य है।"
परवर्ती अन्य भारतीय आर्यभाषाओं के साथ अपभ्रंश का घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुये भी
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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