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________________ अनुशासन के लिए भी कठोर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए)। तथा धर्माभिलाषियों को मधुर, सौम्य या स्निग्ध वाणी का प्रयोग करना चाहिए। निर्दोष वचनों को सर्वज्ञता का प्रतीक माना गया है "प्रणम्य वाचं नि:शेषपदार्थोद्योत-दीपिकाम् ।" – (कथासरित्सागर, 1/3) "इदं कविभ्यो पूर्वेभ्यो नमो वाचं प्रशास्महे ।" – (उत्तररामचरित, 1/1) अहिंसक-वचनों की महत्ता का प्ररूपण करते हुए जैनाचार्य लिखते हैं "क्षुद्रोऽपि नावमन्तव्य: स्वल्पोऽयमिति चिन्तया। शिरस्याक्रमते तुच्छं यत: पादाहतं रज: ।।" अर्थ :- यह छोटा या क्षुद्र है - ऐसा मानकर किसी भी व्यक्ति का वाचिक अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि तुच्छ मिट्टी/धूल भी पैर से ठोकर मारने पर उछलकर सिर पर चढ़ती है अर्थात् आक्रमण करती है। इसीलिये जैन-परम्परा में साधु हो या श्रावक, सभी के लिये वाणी के प्रयोग की मर्यादाओं का विधान किया गया है, तथा उनका दृढ़ता से अनुपालन करने का निर्देश अनेकत्र दिया गया है। श्रमण हों या विद्वान्, आजकल प्रायश: शास्त्र के आधार के बिना इधर-उधर की घटनाओं की प्रमुखता से प्रवचन देने लगे हैं, तथा लोकरंजन की प्रमुखता उनके कथन में आ गई है। यह अत्यन्त शोचनीय स्थिति है, क्योंकि इससे हमारे शास्त्र की मर्यादा और आचार्यों के संदेशों की उपेक्षा होती है तथा वैयक्तिक अहम् के चक्कर में वाणीरूपी गो के वध की स्थिति निर्मित होने लगती है। इसीके निवारण के लिये श्रावकों को हित-मित-प्रिय वचन बोलना, सत्याणुव्रत आदि का विधान है; जबकि श्रमणों के लिये सत्य महाव्रत, भाषा-समिति एवं वचनगुप्ति जैसे नियम बनाये गये हैं। इनके परिणामस्वरूप जैन-परम्परा के व्यक्तियों के वचनप्रयोग अत्यन्त मर्यादित, अहिंसक और निर्दोष होते रहे है। वचनों के इन मर्यादित प्रयोगों को ईसापूर्व तृतीय शताब्दी में सम्राट अशोक ने सारवृद्धि का कारण बताया है—“इदं मूलं च वचिगुत्ती” – (गिरनार प्रशस्ति) __ 'प्रतिक्रमण सूत्र' में भाषा के अनेकों दोषों की चर्चा की गयी है, तथा उनसे निरन्तर दूर रहने की भावना व्यक्त की गई है__ “तत्थ भासासमिदी–कक्कसा, कडुया, परुसा, णिठुरा, परकोहिणी, मज्झकिसा, अदिमाणिणी, अणयंकरा, छेयंकरा, भूदाण वहंकरा चेदि दसविहा भासा भासिदा, भासाविदा, भासिज्जंता वि समणुमण्णिदा; तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।" अर्थ:—उनमें 'भाषा-समिति' दस प्रकार की है; उन दस प्रकारों को निम्नलिखित रूप में दिखाते हैं:- 1. कक्कसा (तूं मूर्ख है, कुछ नहीं जानता —इत्यादि रूप सन्तापजनक कर्कश' भाषा है), 2. कडुया (तूं' जातिहीन है, अधर्मी, पापी है, इत्यादि रूप से उद्वेग उत्पन्न करनेवाली 'कटुक' भाषा है), 3. परुसा (तूं अनेक दोषों से दूषित है' —इसप्रकार प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 007
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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