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________________ मर्म भेदनेवाली 'परुष (कठोर) भाषा है), 4. णिठुरा ("तुझे मारूंगा, तेरा सिर काट लूँगा”—इसप्रकार की निष्ठुर' भाषा है), 5. परकोहिनी ("तेरा तप किसी काम का नहीं, तू निर्लज्ज है” – इस तरह की दूसरों को रोष उपजावनेवाली 'परकोपिनी' भाषा है), 6. मज्झंकिसा (एसी निष्ठुर भाषा, जो हड्डियों का मध्यभाग भी छेद दे, वह मध्यकृशा' भाषा है), 7. अइमाणिणी (अपना महत्त्व-ख्यापन करनेवाली अर्थात् अपनी प्रशंसा करनेवाली और दूसरों की निंदा करनेवाली 'अतिमानिनी' भाषा है), 8. अणयकरा (समान स्वभाववालों में द्वैधीभाव/द्वेषभाव पैदा कर देने वाली या मित्रों में परस्पर विद्वेष/विरोध करा देने वाली 'अनयंकरी' भाषा है), 9. छेयकरा (वीर्य, शील और गुणों की जडमूल से विनाश कर देनेवाली अथवा असद्भूत दोषों का उद्भावन/प्रकट करनेवाली 'छेदकरी' भाषा है) और 10. भूयवहकरा (प्राणियों के प्राणों का वियोग कर देने वाली वधकरी' भाषा है)। इसप्रकार की भाषा मैंने स्वयं बोली हो, दूसरों से बुलवाई हो और बोलते हुये दूसरे की मैंने अनुमोदना की हो, तो उक्त दस प्रकार के भाषा-सम्बन्धी मेरे दुष्कृत मिथ्या होवें। ___किन्तु आज हम देख रहे हैं कि जैन-परम्परा के श्रमणों और श्रावकों में भाषा के संयम की वह गरिमापूर्ण परम्परा अब अपना स्वरूप खोती जा रही है। यह स्थिति जैनसंघ के लिये शभ-संकेत नहीं है। आज यदि तीर्थंकरों के युग से लेकर अनवरत रूप से आज तक जैन-परम्परा अपने यशस्वी प्रतिमानों के साथ चली आ रही है, तो उसका मूलकारण जैनसंघ की उपर्युक्त अनुशासनात्मक मर्यादित परम्परायें रही हैं और इन्हीं के कारण विश्वभर के दार्शनिकों एवं समाजशास्त्रियों ने जैन-परम्परा का महत्त्व मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। जैनश्रमणों एवं श्रावकों ने इन मर्यादाओं का कठोरता से पालन किया, और जब कभी भी जैनसंघ ने इनके बारे में किंचित् मात्र भी शिथिलता दिखाई है, तो युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द जैसे अनुशास्ता आचार्यों ने दृढ़तापूर्वक इसके परिष्कार के लिये स्पष्ट निर्देश प्रदान किये हैं। और इन्हीं कारणों से आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन-परम्परा के प्रमुख अनुशास्ता आचार्य माने गये हैं। हम अपने आपको कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्यों की परम्परा में गर्वपूर्वक घोषित करते हैं, तथा यदि उनकी मर्यादाओं एवं निर्देशों का पालन न कर वाणीरूपी गोवध एवं गोप्रताड़न जैसे दुष्कर्म करेंगे, तो उसका परिणाम हमें अवश्य भोगना पड़ेगा। गोरक्षा के आंदोलनकारियों के अतिरिक्त जैनसमाज के समस्त पूज्य श्रमणों, श्रमणाओं, श्रावक-श्राविकाओं, विद्वानों, लेखकों, विचारकों एवं जिज्ञासुजनों की सेवा में यह आलेख मात्र इसी भावना से यथायोग्य सबहुमान समर्पित है, कि हम सभी मिलकर जैनसमाज में जिस किसी भी स्तर पर वाणी के दुष्प्रयोग की अमर्यादित परम्परा चल पड़ी हो, तो दृढ़तापूर्वक उसका निवारण कर उच्च आध्यात्मिक संदर्भो में गोरक्षा का पुनीत कार्य सम्पन्न करें। ताकि जैनसमाज इस देश को आदर्श नागरिक देकर भारतीय संस्कृति की एवं जैनसंस्कृति की यशस्वी परम्परा का संरक्षण और संवर्द्धन कर सके। 008 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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