________________
होती है; जबकि शिलालेखीय साहित्य मूलरूप में मिलता भी है। इसलिए तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसी बात का ध्यान रखते हुए इस आलेख में उक्त दोनों साहित्यों का इतिहास, भाषिक प्रयोगों के साम्य एवं वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए भाषिक विकास एवं तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से समीक्षा की गई है। साथ ही प्राकृतभाषा के उपलब्ध नियमों की दृष्टि से इनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। शौरसेबी प्राकृत का विकास
प्राकृतभाषा का इतिहास :- अनुमानों के आधार पर 'ऋग्वेद' के लेखन का काल ईसापूर्व 3000 वर्ष माना गया है तथा सिन्धुघाटी-सभ्यता भी लगभग उतनी ही पुरानी अनुमानित की गयी है। उसके उत्खनन में मानव-जीवन की दैनिक उपयोग सम्बन्धित विविध सामग्रियों में मुहरें प्रमुख हैं, जिन पर अंकित शब्दावली को इतिहासकारों, पुरावेत्ताओं एवं भाषाशास्त्रियों ने प्राकृतभाषा माना है। प्राकृतभाषा का उद्गम एवं 'ऋग्वेद' की 'छान्दस्' भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आदिम जनबोली रूप प्राकृत से विकसित वह भाषा ही 'छान्दस्' है; जिसमें की ऋग्वेद' की रचना की गयी है। विद्वानों के अनुसार प्राकृत जनबोली से विकसित उक्त छान्दस्' से भी परवर्ती युगों में साहित्यिक भाषाओं का विकास हुआ, लौकिक संस्कृत एवं साहित्यिक प्राकृत। आगे चलकर नियमबद्ध हो जाने का कारण लौकिक संस्कृत का प्रवाह अवरुद्ध हो गया, जबकि प्राकृत का प्रभाव बिना किसी अवरोध के आगे चलता रहा। जिससे आज की आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ।
शौरसेनी प्राकृतभाषा का विकास :- ईसापूर्व में 'नाट्यशास्त्र' के प्रणेता आचार्य भरतमुनि के पहले शौरसेनी प्राकृत को किस नाम से जाना जाता होगा? इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं। परंतु उस समय एक ऐसी प्राकृतभाषा थी, जो सर्वमान्य थी। केवल क्षेत्रीय प्रभाव आने के कारण उनके शाब्दिक-रूपों में परिवर्तन हुए, इसकारण अलग-अलग प्राकृत भाषायें, विभाषायें बनीं। भरत मुनि ने भी सर्वाधिक महत्त्व शौरसेनी प्राकृत को ही दिया। जितने प्रमाण शौरसेनी प्राकृत के जनबोली तथा सर्वसामान्य लोगों की लोकप्रिय भाषा के मिलते हैं, उतने अन्य किसी के नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईसापूर्व की प्राकृत का ही नाम शौरसेनी प्राकृत' था।
ईसापूर्व की शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप :- ईसापूर्व से लेकर पाँचवी शताब्दी तक शौरसेनी प्राकृत को ही सामान्य प्राकृत' कहा जाता था। तथा ईसा की पाँचवीं शताब्दी से इसी की दुहिता 'महाराष्ट्री प्राकृत' को ही सामान्य प्राकृत' कहा गया। मध्यदेश की भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। क्षेत्रीयता से सम्बन्धित भले ही इसका नामकरण हुआ हो, परन्तु तत्कालीन भारत के व्यापक भूभाग की सुपरिचित व्यावहारिक भाषा होने से अपने संदेशों व उपदेशों की व्यापक उपयोगिता की दृष्टि से इसी शौरसेनी प्राकृतभाषा' में विपुल
00 72
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000