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ईसापूर्व के महत्त्वपूर्ण शिलालेखों की भाषा में
तत्कालीन शौरसेनीप्राकृत का प्रभाव
–श्रीमती मंजूषा सेठी
प्राचीन प्राकृत के प्रयोगों को यथावत् रूप में देखने के लिए हमारे पास प्राचीन शिलालेख ही एकमात्र शरण हैं; क्योंकि अन्य ग्रंथ कितने भी प्राचीन रचित रहे हों, किंतु उनकी अभी मिलने वाली पाण्डुलिपियाँ इतनी प्राचीन नहीं है। अत: इन प्रतिलिपि-रूप पाण्डुलिपियों के आधार से प्राकृतभाषा के प्राचीनरूप को अंतिमप्रमाण के रूप में नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि शिलालेखों में भी सरकारी अधिकारियों/पंडितों एवं खोदनेवाले शिल्पियों की असावधानियों से कई दोष मिलते हैं; फिर भी तकनीकीरूप से वे ही प्राचीनतम मूलप्रमाण माने जायेंगे। इनमें उपलब्ध प्राकृतभाषा के स्वरूप की समीक्षा विदुषी लेखिका ने श्रमपूर्वक इस आलेख में की है, जो विचारणीय है।
–सम्पादक साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज जिसप्रकार का होगा, उसी भाँति साहित्य में प्रतिबिम्बित होता है। समाज के प्रत्येक पहलू के निश्चित ज्ञान का प्रधान-साधन तत्कालीन साहित्य ही है। संस्कृति के उचित प्रचार तथा प्रसार का सर्वश्रेष्ठ साधन साहित्य ही है। यदि हमें किसी भाषा तथा उसके साहित्य का अवलोकन करना है, तो हमें उस भाषा का इतिहास तथा विकासक्रम भी जानना जरूरी हो जाता है। वह साहित्य किस प्रकार के सामाजिक तथा अन्य परिप्रेक्ष्य में रचा गया— इस पर भी प्रकाश डालना होगा। प्रस्तुत आलेख में ईसापूर्व के महत्त्वपूर्ण शिलालेखों की भाषा में तत्कालीन शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव' विषय पर विचार किया गया है। ___प्राकृतभाषा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण शिलालेखों में ही प्राप्त होते हैं। अत: किसी भी प्राकृतभाषा का प्राचीन रूप एवं उसका तुलनात्मक अध्ययन करना हो, तो ईसापूर्वयुगीन शिलालेख में उपलब्ध प्राकृत रूप एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपादान सिद्ध होते हैं। दिगम्बर जैन आगम-ग्रंथों में, विशेषत: आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य से भारतवर्ष की प्राचीन एवं व्यापक भाषा शौरसेनी प्राकृत के महत्त्वपूर्ण निदर्शन प्राप्त होते हैं। इसमें इतना ही अन्तर है कि कुन्दकुन्द का लिखित साहित्य परवर्ती लिपिकारों के विभिन्न कालखण्डों में की गयी प्रतिलिपियों के रूप में मिलता है। तथा कुन्दकुन्द के द्वारा लिखित मूलप्रति कोई प्राप्त नहीं
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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