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सम्पादकीय
गोरक्षा और गोवध
-डॉ० सुदीप जैन
कोशकारों ने 'गो' शब्द के जितने अर्थ प्ररूपित किये हैं, उतने अर्थ संभवत: अन्य किसी इतने लघुकाय शब्द के नहीं गिनाये हैं। व्युत्पत्ति का आश्रय लेकर 'गच्छतीति गो' के अनुसार किसी पशु-विशेष के रूप में रूढ इसे किया गया हो; परन्तु हमारे पूर्वज मनीषियों को इस शब्द का अभिप्राय पशु-विशेष तक सीमित करना न तो कभी इष्ट था
और न ही इस दृष्टि से उन्होंने इस शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की है। अन्यथा गौरव, गवेषणा जैसे जैसे गोमूलक' शब्द भी पशु-विशेष तक सीमित होते। किन्तु ऐसा नहीं होना यह सूचित करता है कि 'गो' शब्द अत्यन्त व्यापक अभिप्राय को अपने आप में समाहित किये हुए है।
कोशग्रन्थों के आधार पर ही संकलित कतिपय निदर्शन द्रष्टव्य है
'गो' शब्द के अर्व- तारे, आकाश, पृथिवी, प्रकाश की किरण, स्वर्ग, आत्मा, वाणी, सरस्वती देवी, शब्द, इन्द्रियाँ, सूर्य, चन्द्रमा, क्षितिज, समुच्चय, वृद्धि, चक्षु, माता आदि।
'गो' से निष्पन्न शब्द और उसके अर्थ- गोत्र (कुलगत-परिचय), गोधूम (गहूँ), गोध्र (पर्वत), गोपति (शिव, वरुण, राजा), गोपुर (नगर का या घर का मुख्य दरवाजा), गोमेद (रत्न-विशेष), गोविद (बृहस्पति), गोर्द (मस्तिष्क), गोल (अंतरिक्ष या आकाशमंडल), गोष्ठी (सभा, समाज, प्रवचन), गौर (गोरावर्ण), गौरव (गुरुता, महत्त्व, आदर, सम्मान), गौरिल (सफेद सरसों), गौरी (तुलसी का पौधा, मल्लिकालता, कुमारी कन्या, पार्वती), इत्यादि।
उपर्युक्त कतिपय निदर्शन गो' शब्द के व्यापकत्व के बारे में सूचित करने के लिए पर्याप्त हैं। इनको देखकर यह कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं लगेगा कि 'गो' शब्द का अर्थ पशु-विशेष तक सीमित करना इसकी व्यापकता को बलात् संकुचित करना ही है। मुझे रूढ़ अर्थ के रूप में 'गाय' रूप पशुविशेष अर्थ से कोई आपत्ति या विरोध नहीं है; किन्तु इस व्यापक शब्द को एक रूढ अर्थ तक बाँधकर सीमित कर देने में अवश्य आपत्ति है।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000