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कवि ने जल, चन्दन के पश्चात् पुष्प एवं अक्षत का क्रम रखा है। इससे यह निश्चित है कि कवि भट्टारकीय-परम्परा का श्रद्धालु भक्त था। ग्रन्द-रचबा-स्थल
कवि ने यह स्पष्ट ही लिखा है कि भट्टारक अमयचन्द (अमृतचन्द्र) ने उन्हें बम्हडवाडपट्टन में 'पजुण्णचरिउ' के प्रणयन का आदेश दिया था। इससे यह विदित होता है कि कवि सिद्ध ने उसकी रचना वहीं बैठकर की होगी। 'पजुण्णचरिउ' के अनुसार बम्हडवाडपट्टन विविध जैन-मठों, विहारों एवं रमणीक जिन-भवनों से सुशोभित था। वह सौराष्ट्र देश में स्थित था। बम्हडवाड की अवस्थिति, जलवायु तथा वहाँ के निवासियों की सुरुचि-सम्पन्नता ने उस भूमि को सम्भवत: साधना-स्थली बना दिया था। इन्हीं कारणों से आचार्य, लेखक और कवि वहाँ प्राय: आते-जाते, बने रहते होंगे। लगता है कि महाकवि सिद्ध भी उसी क्रम में भ्रमण करते-करते वहाँ आये होंगे और संयोगवश उसी समय जब उक्त अमृतचन्द्र भट्टारक भी विहार करते हुए वहाँ पधारे, तब वहाँ भेंट होते ही भट्टारक के आदेश से उन्होंने प्रस्तुत 'पजुण्णचरिउ' की रचना की थी। मूल ग्रन्धकार -बिवास-स्थल
यह कहना कठिन है कि कवि सिद्ध कहाँ के निवासी थे। कवि ने स्वयं ही उसकी कोई चर्चा नहीं की और न उसने अपने कुल-गोत्र या अन्य विषयक ऐसी कोई चर्चा ही की है कि उससे भी कुछ जानकारी मिल सके। किन्तु उनके माता-पिता के नामों की शैली देख कर यह अवश्य प्रतीत होता है कि वे दाक्षिणात्य थे तथा उनका निवास-स्थल कर्नाटक में कहीं होना चाहिए। क्योंकि सिद्ध, पम्प, देवण्ण आदि नाम कर्नाटक में ही प्राय: देखे जाते हैं। कवि ने अपनी उपाधि के रूप में मुनि, साधु, विरत अथवा तत्सम ऐसे किसी विशेषण का उल्लेख नहीं किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि वह गृहस्थ रहा होगा और ज्ञान-पिपासा की तृप्ति अथवा वृत्ति-हेतु भ्रमण करता-करता बम्हडवाडपट्टन पहुँचा होगा। कवि ने दक्षिण के अनेक देशों एवं नगरों आदि के प्राय: उल्लेख किये हैं। इनसे भी यही प्रतिभासित होता है कि कवि दाक्षिणात्य अथवा कर्नाटक-प्रदेश का निवासी रहा होगा। गुरुपरम्परा एवं काल ___ महाकवि सिद्ध ने लिखा है कि अमृतचन्द्र भट्टारक ने उसे पजुएणचरिउ के प्रणयन का आदेश दिया। इससे यह सिद्ध है कि अमृतचन्द्र भट्टारक ही कवि के काव्य-प्रणयन में प्रेरक गुरु थे। कवि ने उन्हें मलधारीदेव, मुनिपुंगव माधवचन्द्र का शिष्य कहा है; किन्तु वे किस. गण एवं गच्छ के थे? – इसके विषय में कवि ने कोई सूचना नहीं दी। ___ माधवचन्द्र की 'मलधारी' उपाधि से यह प्रतीत होता है कि वे मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा के आचार्य रहे होंगे, जिनका समय 12वीं सदी के लगभग रहा है। किन्तु इनकी निश्चित परम्परा एवं काल की जानकारी के लिए निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2000