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का अनुयायी प्रतीत होता है। श्री शर्मा ने यह लिखा है कि “चेरों ने चोल-नरेश कारिकल के पिता का वध कर दिया, किंतु चेर-नरेश को अपनी जान गंवानी पड़ी। कहा जाता है कि चेर-राजा ने पीठ में घाव लगने के कारण लज्जावश आत्महत्या कर ली।" यह राजा उदियन चेर लातन था। इस शासक के संबंध में उसके शत्रु-राजा के कवि ने उसके बारे में लिखा था, "Is not he (cher king) nobler than thee (Chol Karikal) who ashamed of the wound on his back , starves without food to gain glorious death? " अपना अंत समय निकट जानकर अन्न-जल का त्याग करना जैन-परंपरा में 'सल्लेखना धारण करना' कहलाता है। कवि ने इसी सल्लेखना की प्रशंसा की है। उदियन ने सल्लेखना धारण की थी, न कि आत्महत्या की थी। तमिल में 'सल्लेखना' को वडक्किरुत्तल कहते हैं। दूसरी सदी में हुए युवराजपाद इलेगो अडिगल (शिलप्पदिकारम् नामक महाकाव्य में जैन श्राविका कण्णगी और उसके पति कोवलन की अमर प्रेम गाथा के महाकवि) भी जैन आचार्य थे। इस वंश के चेर काप्पियन के लिए निर्मित शैल शय्या आज भी 'पुगलूर' में (तमिलनाडु) है।
कलभ्र शासक :- ईसा की तीसरी से पाँचवी सदी का केरल सहित तमिलनाडु का इतिहास अंधकारपूर्ण (historical night) माना जाता है, अर्थात् उस काल का कोई इतिहास नहीं मिलता। इतना लिखा मिलता है कि कलभ्र शासक कलि अरसन' यानी कलिकाल में सभ्यता के शत्रु थे। श्री शर्मा ने पृ0 225 पर लिखा है, “कालों को दुष्ट राजा कहा गया है। उन्होंने अनेकानेक राजाओं को उखाड़ फेंका और तमिलनाडु पर अपना कब्जा जमा लिया। उन्होंने बहुत सारे गाँवों मे ब्राह्मणों को मिले 'ब्रह्मदेयं' अधिकारों को खत्म कर दिया। लगता है कि कलभ्र बौद्धधर्म के अनुयायी थे।” वास्तव में कलभ्र जैन थे। कुछ लोग उन्हें कर्नाटक से आए बताते हैं। रामास्वामी आयंगार का मत है, "It looks as though the Jains had themselves invited the Kalabhras to establish Jainism more firmly in the country. The period of the Kalabhras and that which succeeds it must, therefore, be considered as the period when the Jains had reachered their zenith. It was during this period that the famous Naladiyar (collection of didactical poems by Jain asetics) was composed by the Jains. There are two references in Naladiyar to Muttaraiyar (lords of pearls) indicating that the Kalabhras were Jains and patrons of Tamil literature," p.56, Studies in South Indian Jainism.
संगति-प्रभाव
“अलं तेनामृतेन यत्रास्ति विषसंसर्ग:।" – (नीतिवाक्यामृत. 72)
अर्थ:- जिस अमृत में विष का अंश मिला हो, वह अमृत भी सेवन करने योग्य | नहीं होता है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000