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________________ गंग वंश के संबंध में श्री शर्मा ने ऊपर कही गई दान की बात के अलावा और कोई तथ्य नहीं लिखा। इस वंश की स्थापना में सर्वाधिक योगदान जैनाचार्य सिंहनंदि का था । अनेक गंग राजाओं ने जैन मंदिरों आदि का निर्माण करवाया था । श्री रामचंद्रन ने लिखा है. “जैनधर्म का स्वर्णयुग साधारणतया दक्षिण भारत में और विशेषकर कर्नाटक में गंग वंश के शासकों के समय में था, जिन्होंने जैनधर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार किया था ।” तमिलनाडु (तमिलगम); इस प्रदेश के चार राजवंश प्रख्यात हैं. पल्लव, पांड्य, चोल और चेर । पल्लव वंश आंध्र और तमिलनाडु के सीमावर्ती प्रदेश पर शासन करता था। उसकी राजधानी कांजीवरम् (कांची ) थी। इसके संबंध में श्री शर्मा लिखते हैं कि पल्लव किसी कबीले के थे और उन्हें ”पूरा-पूरा सभ्य होने में कुछ समय लगा; क्योंकि पल्लव शब्द का अर्थ तमिल भाषा मे डाकू होता है।” प्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र अपने को कांची का निवासी बताते थे। इस वंश का राज्य दूसरी सदी में स्थापित माना जाता है। इस वंश के कुछ राजा जैन थे। छटी सदी में इस वंश के महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630) ने अनेक जैन मंदिरों तथा गुफाओं का निर्माण करवाया था । प्रसिद्ध 'सितन्नवासल' जैन- गुफा का निर्माण भी उसीने करवाया था, किंतु वह शैव बन गया और उसने जैनधर्म को बहुत अधिक हानि पहुँचाई । चोल वंश को सम्मिलित करते हुए भी श्री शर्मा ने लिखा है कि “तमिल देश में ईसा की आरंभिक सदियों में जो राज्य स्थापित हुए, उनका विकास ब्राह्मण-संस्कृति के प्रभाव से हुआ...राजा वैदिक यज्ञ करते थे । वेदानुयायी ब्राह्मण लोग शास्त्रार्थ करते थे ।” यहाँ यह सूचना ही पर्याप्त जान पड़ती है कि चोल राजा कीलिकवर्मन का पुत्र शांतिवर्मन (120-185 A.D.) जैन मुनि हो गया था और वह जैन परंपरा में आचार्य समंतभद्र के नाम से आदरणीय और पूज्य है। स्वामी समंतभद्र ने भारत के अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ में विजय पाई थी। वे अपने आपको वादी, वाग्मी आदि कहते थे । चौथी सदी में जब चोल राजाओं का प्रभाव बढ़ा, तब भी वे जैनधर्म के प्रति सहिष्णु रहे I पांड्य वंश का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। श्री शर्मा ने यह मत व्यक्त किया है कि “पांड्य राजाओं को रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार में लाभ होता था और उन्होंने रोमन सम्राट् ऑगस्टस के दरबार में राजदूत भेजे । ब्राह्मणों का अच्छा स्थान था ।” yo 172 किंतु डॉ० ज्योतिप्रसाद का कथन है, “ ई० पूर्व 25 में तत्कालीन पांड्य नरेश ने एक जैन श्रमणाचार्य को सुदूर रोम के सम्राट् ऑगस्टस के दरबार में अपना राजदूत बनाकर भेजा था। भड़ौच के बंदरगाह से जलपोत द्वारा यह यात्रा प्रारंभ हुई थी। उक्त मुनि ने अपना अंत निकट जानकर रोम नगर में सल्लेखना द्वारा देह त्याग दी थी और वहाँ उनकी समाधि बनी थी । " -(To 246) चेर राजवंश का नाम अशोक के शिलालेख में भी है। यह वंश आरंभ से ही जैनधर्म प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2000 93
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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