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________________ जैनदर्शन में 'जिन' शब्द की व्याख्या - डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य जैनदर्शन में कथित मूल छह द्रव्यों में जीव (आत्मा) का कथन सर्वप्रथम इसकारण किया गया है कि वह आत्मा अन्य सब द्रव्यों में प्रधान एवं ज्ञान - दर्शन आदि अनन्त गुणों का भण्डार है । आचार्य जिनसेन ने 'सहस्रनामस्तोत्र' में कहा है 1 “अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणा: । त्वां नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिसिषामहे ।। ” - (सहस्रनाम - पीठिका, पद्य 33 ) अर्थ :- हे भगवन् ! यद्यपि आपके आत्मा के गुण अनन्त हैं, उनका स्तवन नहीं किया जा सकता है; तथापि 1008 नामों के स्मरणमात्र से आपकी उपासना भक्तिवश कर रहे हैं। आगे सहस्रनामों का स्मरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि “जिनो जिष्णुरमेयात्मा विष्णुरीशो जगत्पतिः ।” – (सहस्रनाम प्र० अ०, पद्य 6 ) अर्थात् हे भगवन्! आप “जित: ज्ञानावरणादिकर्मशत्रून् जयति-इति जिन:”, अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मशत्रु को जीतनेवाले होने से 'जिन' हैं । आप जिष्णु' हैं अर्थात् कर्मशत्रुओं को जीतने का आपका स्वभाव है । पूज्यपाद आचार्य के मत में 'जिन' की व्याख्या 60 “जितमद - हर्ष - द्वेषा, जितमोह- परीषहा जितकषाया: । जितजन्म-मरण- - रोगाः, जितमात्सर्या जयन्तु जिना: । । ” - ( अर्हद्भक्ति, पद्य 10 ) : सारांश ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागद्वेष आदि भावकर्म एवं जन्म-मरण आदि मोकर्मों के विजेता 'जिन' विश्व में जयवन्त हों । आचार्य विद्यानन्द स्वामी-सम्मत 'जैन' शब्द की व्याख्या निम्नानुसार है— “प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थ- बोधदीधितिमालिने । नमः श्रीजिनचन्द्राय, मोहध्वान्तप्रभेदिने । । ” – (आप्तपरीक्षा, मंगलाचरण ) इस मंगलाचरण में जिनरूपीचन्द्र को अर्थात् चन्द्रप्रभ जिन को अथवा सकलजिन प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 2000
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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