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________________ उनका वियोग अवश्य होता है, यही सृष्टि का नियम है— ऐसा विचारकर वापस लौट आईं और आत्महत्या करने के घृणित विचार का पश्चात्ताप करने के लिए जीवनपर्यन्त एक बार भोजन करने एवं दो बार पानी पीने का नियम लिया । सम्पूर्ण जीवन शिक्षा व ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर अपनी तीर्थयात्रा पूर्ण करने के लिए चल पड़ीं। गृहनगर वापस आकर सर्वप्रथम कर्जदार कृषक समुदाय के कर्ज माफ कर दिये । ज्ञानीजनों का समागम करने के क्रम में उन्हें बीस वर्षीय संकोची व ज्ञान-पिपासु, उदार व दृढ़ प्रकृति का युवक मिला, जो उनके घर भोजन - हेतु आया था। उस युवक का नाम 'गणेश प्रसाद' था । गणेश प्रसाद जी को देखकर उनका मातृहृदय उमड़ पड़ा, वक्षस्थल से दुग्धधारा बह निकली और उन्हें वह जन्म-जन्मान्तर का पुत्र प्रतिभासित हुआ। गणेश प्रसाद को पुत्र के रूप में स्वीकार कर 'क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी' के रूप में समाज को समर्पित किया। माँ चिरोंजाबाई ने अपने इस धर्मपुत्र के माध्यम से वह आज भी अपनी सहस्रों शिखाओं से दिग्दिगन्त को प्रकाशित कर रखा है। माँ चिरोंजाबाई केवल 10,000/ - की रकम साथ लेकर अपना सब कुछ दान देकर 'बरुआसागर' में आकर रहने लगीं । कुछ समय बाद सागर (म०प्र०) में 75 वर्ष की आयु में 'चिरोंजाबाई' वे वीतरागी प्रभु की आराधनापूर्वक समताभाव से संसार से विदा ली। शिक्षा व संस्कृति के उत्थान में चिरोंजाबाई की भूमिका 'बाई जी' के धर्मपुत्र गणेश प्रसाद संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि विद्याओं के पंडित बनना चाहते थे। उनके भीतर ज्ञान प्राप्ति की तीव्र प्यास थी; किन्तु ज्ञान - प्राप्ति के साधनों का उतना ही अभाव था। एक बार 'बनारस' के एक विद्वान् ने उनका बहुत अपमान किया, साम्प्रदायिकता की संकीर्ण - भावना के कारण पढ़ाने से इनकार कर दिया । वर्णीजी को धर्म, दर्शन व संस्कृति का यथेच्छ अध्ययन कराने का माँ का सपना पूर्ण होता नज़र नहीं आया। बनारस जैसी संस्कृत के विद्वानों से परिपूर्ण नगरी में संस्कृत पढ़ने के लिए किया गया, उनके पुत्र का अपमान समस्त भारत के लिए वरदान बन गया । 'बाईजी' व अन्य विद्वानों ने वर्णीजी को महाविद्यालय खोलने की प्रेरणा दी। एक रुपया दान के रूप में प्राप्त हुआ और चौंसठ पोस्टकार्ड खरीदकर ( उस समय एक रुपये के चौंसठ पैसे होते थे, एक पोस्टकार्ड एक पैसे का आता था) महाविद्यालय खोलने की इच्छा से समाज के विशिष्ट व्यक्तियों को अवगत कराया। सभी ने इस प्रयत्न की सराहना करते हुए सहायता का वचन दिया । विशुद्ध परिणामों से प्रयत्न सफल हुआ— “ अवश्यंभाविनो भावा भवन्ति महतामपि । नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः । ।” (1) स्याद्वाद संस्कृत महाविद्यालय काशी' की स्थापना एक रुपया बीज के रूप में प्राप्त कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी को इस विद्यालय की स्थापना हुई, वर्णी दीपचन्द जी प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर '2000 00 47
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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