SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुर्भावों को छोड़ देता है, वह अत्यन्त दुर्धर 'ब्रह्मचर्य धर्म' को धारण करता है। यह एक सुखद संयोग है कि इस दसलक्षणमयी धर्म को अन्य दर्शनों में भी लगभग इससे मिलते-जुलते रूप में ही स्वीकार किया गया है। वैदिक दर्शन के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रीय ग्रंथ 'मनुस्मृति' में महर्षि मनु लिखते हैं : __ "धति: क्षमा: दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।" – (मनुस्मृति, 6/92) __ अर्थ:- धैर्य, क्षमा, दम, अचौर्य, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी: (ज्ञान), विद्या, सत्य एवं अक्रोध —यह दशांगी धर्म का लक्षण है। इसीप्रकार बौद्ध धर्म' में दस पारमितायें मानी गयी हैं, जिनके पालन से ही मनुष्य बुद्ध' हो सकता है। वे हैं - दान, शील, नैष्कर्म्य, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा। 'बाइबिल' में ईसाई धर्म' के प्राणस्वरूप दस आदेश दिये गये हैं1. Thou shalt not have strange Gods before me. 2. Thou shalt not tkae the name of the Lord they God in vain. 3. Remember thou keep holy the Sabbath day. 4. Honour thy Father and they mother. 5. Thou shalt not kill. 6. Thou shalt not commit adultery. 7. Thou shalt not steal. 8. Thou shalt not bear false witness against they neighbour. 9. Thou shalt not covet they neighbour's house. 10. Thou shalt not covet thy neighbour's wife. आश्चर्य यह नहीं है कि इन धर्मलक्षणों में परस्पर कुछ नामभेद हैं। आश्चर्य की बात तो वस्तुत: यह है कि धर्म के दश अंग इन सभी धर्मों में माने गये हैं और उनमें असाधारण समानता है। -(तत्त्वसमुच्चय, पृष्ठ 181, हीरालाल जैन) उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह दशलक्षणमयी धर्म एक अत्यन्त व्यापक आधारभूमि में अतिप्राचीनकाल से प्रसरित एवं प्रचलित रहा है। अत: इसे सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक धर्म के रूप में भी माना जा सकता है। साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि इसकी सार्थकता उपदेश में चरितार्थ न होकर अनुकरण में पूर्णता को प्राप्त होती है। ** विवेक बुद्धि 'वीर्य-महिमा-बुद्धिस्तु मा गान्मम्।' – ('मुद्राराक्षस' 1/26 में चाणक्य का कथन) शक्तियुक्त और महिमामय मेरी विवेकबुद्धि मुझसे (चाणक्य से) अलग न होवे। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 40 45
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy