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________________ व्याकरण' पर राष्ट्रीय सेमिनार का विवरण पढ़ा। कातन्त्र-व्याकरण के सूत्रों के आधार पर आचार्य जिनप्रभसूरि ने श्रेणिक चरित्र (अपरनाम दुर्गवृत्ति व्याश्रय काव्य) की रचना की है। अद्यावधि अप्रगट इस काव्य में (कातन्त्र व्याकरण के उदाहरणों को और श्रेणिक चरित्र का गुंफन हुआ है) हम इसका संपादन कर रहे है. अत: एतद्विषयक लेख जिस अंक में प्रगट हुये हैं। –आo मुनिचन्द्र सूरि, (अहमदाबाद) ** ___अप्रैल-जून 2000ई० में प्राकृतविद्या में प्रकाशित लेख 'जैनदर्शन में रत्नत्रय की मीमांसा' में डॉ० दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य ने यह बताकर कि “चारों अनुयोगों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के लक्षणों में शब्दों की अपेक्षा अन्तर प्रतिभाषित होता है। पर आत्मश्रद्धान की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, चारों अनुयोगों की समान उपयोगिता पर प्रकाश डाला है। ___प्राय: करणानुयोग व द्रव्यानुयोग के सतत स्वाध्यायप्रेमियों से सुना जाता है कि प्रथमानुयोग तो वे पढ़ें, जो मन्दबुद्धि है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में आनेवाली कठिनाई को नहीं समझने के कारण यह कहकर भी टाल देते हैं कि “जब आत्मा का इतना बड़ा आनन्द ले लिया, तो उसके सामने ये सब फीके हैं।” इन सभी बातों के बीच सभी के लिये यह आलेख एक दिशाबोधक है। -श्रीमती स्नेहलता जैन, मानसरोवर, जयपुर ** आपके द्वारा भेजी जा रही पत्रिका बराबर प्राप्त हो रही है. उसमें बड़े ही ज्ञानवर्धक लेख पढ़ने एवं समझने के लिये प्राप्त होते हैं, इसके लिये आपको हार्दिक धन्यवाद है। -सुमत जैन, इटावा (उ०प्र०) ** अप्रैल-जून 2000ई० प्राकृतविद्या का अंक बड़ा सुहाया। अनेक लेख तो इतने जानकारीपूर्ण है कि इस प्रति को आगे बार-बार उद्धृत करने के लिये सुरक्षित रखने का संकल्प किया है। भाषा के विस्तृत विवरणों ने महत्त्व और भी बढ़ाया है। -तेजराज जैन, मैसूर (कर्ना०) ** 'प्राकृतविद्या' का नया अंक मिला। इसका हर एक लेख महत्त्वपूर्ण और संग्राह्य है। -पं० बाहुबली पा० उपाध्ये, (कर्नाटक) ** माह अप्रैल-जून 2000ई० प्राकृतविद्या का अंक मिला, आभार । अंक सुरुचिपूर्ण, पठनीय एवं ज्ञानवर्धक सामग्री से ओतप्रोत है। सम्पादकीय में धार्मिक-सामाजिक आयोजनों की उपादेयता दशति हुए सम्यग्दर्शन के दो महत्त्वपूर्ण अंगों—स्थितिकरण और प्रभावना पर दृष्टिपात करते धर्मात्माजनों के कर्तव्यों का बोध कराकर एक नया सोच पैदा करने का प्रयास किया गया है, जो सराहनीय है। प्राकृत का संस्कृत से सामंजस्य, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भाषा णमोकार-मंत्र संबंधी लेख शोधपूर्ण होकर चिन्तन के लिए मार्गप्रशस्त करते हैं। प्राकृतविद्या प्रशस्ति-हिन्दी अनुवाद मूल जैसा ही सशक्त और बोधगम्य लगता है। तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्तों की प्रासंगिकता आलेख संक्षिप्त होते हुए भी बड़ा विशलेषात्मक तथा सारगर्भित है। इक्कीसवीं सदी - कातन्त्र व्याकरण का स्वर्णयुग संबंधी प्रतिवेदन अध्ययन हेतु अच्छी सामग्री देता है। अशोक जी का संस्मरण अन्तरंगता लिये होकर प्रभावित 00 104 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
SR No.521363
Book TitlePrakrit Vidya 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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